स्वर्ग अल्प अंत दुख दाई
स्वर्ग अल्प अंत दुख दाई
दिव्य ज्ञानी लोग स्वर्ग व नरक दोनों को दुखदाई मान कर केवल प्रभु के चरणों का चिंतन करके जड़ चेतन के कल्याण हेतु निष्काम कर्म करते हें। क्योंकि वे जानते हैं कि स्वर्ग सोने की बेडियों के समान है तो नरक लोहे की बेडियों के समान। बंधन तो दोनों है। भारतीय दर्शन के अनुसार भी स्वर्ग जाने वालों के भी नेक कर्म फलों का उपभोग करने के बाद भी जीव को पुन्न जन मरण के बंधन में बंधना पड़ता है। इसी तरह नरक गामी व्यक्ति को भी अपने कृत्यों का उपभोग करने के बाद फिर जनम मरण के चक्र में फंसना पड़ता है। इसलिए तत्व ज्ञानी पुरूष कभी भी पाप पुण्य की दृष्टि से कर्म न करते हैं वे सदा जड़ चेतन को परमात्मा का स्वरूप मान कर उनकी खुशी के लिए कर्म रूपि पूजा करते है। यही निष्काम कर्म जीव को जन्म मरण के बंधन से सदा मुक्ति देता है तथा सदा के लिए श्रीचरणों में लीन हो जाता है। -श्रीकृष्ण प्रिय देव
दिव्य ज्ञानी लोग स्वर्ग व नरक दोनों को दुखदाई मान कर केवल प्रभु के चरणों का चिंतन करके जड़ चेतन के कल्याण हेतु निष्काम कर्म करते हें। क्योंकि वे जानते हैं कि स्वर्ग सोने की बेडियों के समान है तो नरक लोहे की बेडियों के समान। बंधन तो दोनों है। भारतीय दर्शन के अनुसार भी स्वर्ग जाने वालों के भी नेक कर्म फलों का उपभोग करने के बाद भी जीव को पुन्न जन मरण के बंधन में बंधना पड़ता है। इसी तरह नरक गामी व्यक्ति को भी अपने कृत्यों का उपभोग करने के बाद फिर जनम मरण के चक्र में फंसना पड़ता है। इसलिए तत्व ज्ञानी पुरूष कभी भी पाप पुण्य की दृष्टि से कर्म न करते हैं वे सदा जड़ चेतन को परमात्मा का स्वरूप मान कर उनकी खुशी के लिए कर्म रूपि पूजा करते है। यही निष्काम कर्म जीव को जन्म मरण के बंधन से सदा मुक्ति देता है तथा सदा के लिए श्रीचरणों में लीन हो जाता है। -श्रीकृष्ण प्रिय देव
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