बलि देने वालों से अधिक गुनाहगार हे कातिल सरकारें


बलि देने वालों से अधिक गुनाहगार हे कातिल सरकारें/
-पशु बलि, जनता बनाम कातिल सरकार/
उत्तराखण्ड के प्रसिद्व बूंखाल मेले में इस साल बलि नहीं हुई। लोगों ने सरकारी कानून के भय से बलि नहीं दी। ऐसा ही कई जगह हुआ। मेरे मन में एक विचार कई सालों से बार बार उठता है कि अपने हितों के लिए निरापराध जीव की हत्या करने वाले गुनाहगार है। चाहे दो टके लिए लाखों निरापराध पशुओं की कत्ल कराने वाली सरकार या देवी देवताओं या अल्लाह के नाम पर बलि या कुर्वानी  देने वाले लोग।  जब हम किसी को जीवन दे नहीं सकते तो हमे किसी का जीवन दे नहीं सकते तो हमें किसी निरापराध जीव की हत्या करने का कोई अधिकार नहीं हे। जब तक कोई हमारे प्राणों को हरने की चेष्टा न करे तब तक हमें किसी के प्राणों को हरने की चेष्टा ही नहीं करनी चाहिए। इस मामले में मैं आम लोगों से अधिक गुनाहगार भारत की सरकार को मानता हॅू। पश्चिमी देश या अरब देशों से यह आश करना अभी बेईमानी ही होगी। क्योंकि इनको अभी इस गुढ़ दिव्य ज्ञान का भान तक नहीं। भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में अदभूत है। भारत में ज्ञान विज्ञान व आध्यात्म की सदियों से अमर गंगा बहती है। यहां पर सरकारें दो टके के लिए लाखों जीवों (बकरी, भैंस, गौवंश आदि जीवों) की निर्मम हत्या के लिए देश में कत्लगाह खुलाने वाले ईश्वर की आगे तो गुनाहगार हैं ही अपितु ये भारतीय संस्कृति पर कलंक ही नहीं अपितु एक प्रकार से हत्यारे भी हैं। खासकर मनुष्य जो प्रकृति प्रदत शाकाहारी जीव हे, वह सृष्टि के उन बेगुनाह जीवों की हत्या करे जो उसके जीवन के लिए कहीं दूर दूर तक संकट पैदा नहीं करते हों। उस पर हमला तक नहीं करते हों। ऐसे जीवों की हत्या करने वाले  प्रकृति के अपराधी है। चाहे वह सरकार हो या व्यक्ति। जो अपराध बलि देने वाले का है पशुओं की हत्या करने वाले का है, वहीं अपराध सरकार का भी है। यह अजीब बिडम्बना है कि इस मुल्क में एक कार्य जो अपराध है उसे व्यक्ति करे तो अपराध व सरकार करे तो माफ नहीं चलना चाहिए।  भारत की धरती पर निरांपराध जीवों की हत्या के लिए सरकार कत्लखाने चलाये या चलाने की इजाजत दे इससे बड़ा कलंक इस भारत जैसे विश्व गुरू समझे जाने वाले देश के लिए कोई दूसरा हो ही नहीं सकता है। इसके लिए में आज तक के तमाम हुक्मरानों जिसमें गांधी के नाम पर शासन चलाने वाली कांग्रेस व भारतीय संस्कृति के स्वयंभू झण्डेबरदार बने संघ के स्वयंसेवक रहे अटल आडवाणी की सरकार को भी में धिक्कारना चाहता हॅू। ये सभी सरकारें इस मुद्दे पर गुनाहगार है।
 इस पखवाडे मैं अपने गांव गया । वहां पर पांडव नृत्य हो रहा था। 25 नवम्बर को जब मैं गांव में पंहुचा तो मेरे साथ गांव जा रहे रेलवे में सेवारत मेरे भतीजे सुरेन्द्र सिंह रावत ने कहा ‘चाचा हम सही समय पर जा रहे हैं, आज हमारे यहां पाण्डव नृत्य का समापन भी है। देवताओं का आशीर्वाद भी हमें मिल जायेगा। मैं भी खुश था, कई सालों बाद मैं पाण्डव नृत्य के समय गांव पंहुच रहा था। जैसे ही दोपहर को गांव में पंहुचा तो पता चला कि वहां पर पाण्डव नृत्य के समापन के लिए दो बकरियों की बलि दी जायेगी। मेने पाण्डव नृत्य के समापन पर वहां न जाने का फेसला किया। पशुओं की बलि की बात सुनते ही मुझे गुस्सा आ गया। आता भी क्यों नहीं। कई साल पहले मैने ही अपने गांव में पाण्डव नृत्य में ही इस पशु बलि को न होने देने के लिए सफल अभियान चलाया था। देवी देवताओं के अवतरण के बाद मेने उनसे दो टूक एक ही बात पूछी थी कि इस निर अपराध बकरी की हत्या क्यों ? बताया गया कि एक बकरी भूमियाल देवता व दूसरी बकरी माॅं भगवती के थान में मारी जायेगी। यानी बलि दी जायेगी। मैने कहा कि भूमि का स्वामी यानी भूमियाल भगवान विष्णु माने जाते हैं वे सात्त्विक वृति के हैं, उनके नाम पर बलि एक अपराध है। वहीं दूसरी तरफ माॅं भगवती के नाम पर बलि । मैंने देवी अवतरित व्यक्ति से दो टूक शब्दों में पूछा कि ‘ या देवी सर्वभूतेषू मातृ रूपेण संस्थिताम... यानी जो माॅं भगवती सारी सृष्टि के जीवों की माता है, उसके आगे उसके पुत्र की बलि कौन सी पूजा हे। संसार की कौन सी माॅं ऐसी होगी जो अपने आगे उसकी पूजा के नाम पर उसके बेटे की हत्या करने वाले तथाकथित भक्तों से प्रसन्न होगी? मेरी बात पर देवी अवतरित व्यक्ति ने कहा कि बलि मुझे नहीं मेरे वीर गणों को चाहिए। मेने कहा जिसके दर्शन मात्र से जन्म जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं, उन दिव्य स्वरूपा माॅं भगवती के साथ रहने वाले गणों की ऐसी वृति हो ही नहीं सकती कि वे किसी निरापराध जीव की हत्या कराने के लिए अपने भक्तों से पूजा कराये।  मेरी इन दलीलों से निरूतर गांव के मठाधीशों ने उस समय बलि रोक दी थी। परन्तु इस पखवाडे की। मैं गुूस्से में था। उसी समय घर पंहुचा हुहा था। मेरी धर्मपत्नी मेरे स्वभाव को जानती है। क्योंकि एक समय पहले मेरे ही कहने पर मेरा परिवार गांव में कई दशकों बाद आयोजित माॅं नंदा की स्यलपाती में इसी बलि के कारण सम्मलित नहीं हुए थे। उस समय भी लोगों ने तर्क दिया था कि जब आप बलि में सम्मलित न हो परन्तु अपने परिवार का अंशदान रूपये जो गांव के प्रत्येक परिवार पर लगा रखे हैं उसको दो। मैने कहा कि अंशदान देने का मतलब उस निरापराध पशु की हत्या में सम्मलित होना। पूरे क्षेत्र में हमारे गांव में आयोजित इस विशाल स्यलपाती आयोजन के कई दिनों के इस मेले में मेरा परिवार सम्मलित नहीं हुआ। उन्होंने कितनी जलालत सही होगी। कितने ताने सहे होंगे। इसका मुझे अहसास है। में अपनी पत्नी के इस त्याग के लिए उसको शतः शतः नमन् करता हॅू कि उसने मेरे सिद्वान्तों के कारण तमाम अपमान व परेशानियां झेलते हुए भी कभी उफ तक नहीं की। तमाम बदहालियां, परेशानियां व जनविरोध को झेलने के बाबजूद कदम कदम पर मजबूती से मेरा साथ दिया।
 सवाल हमारे गांव के पाण्डव नृत्य का हो या कहीं और। हमारे उत्तराखण्ड में पहले हर काम में बलि का विधान था। शादी हो गयी तो बहु के मायके वालों को मसाण के नाम पर बलि दे कर उनकी उदर पूर्ति बकरे से की जाती थी। कदम कदम पर बकरे की बलि। किसी को दुख बीमार हो या शादी व्याह। मनौती हो या क्रिकेट मैचादि। कोई भी समारोह तो बकरे की शामत।
हालांकि लोगों में कई प्रकार से जागृति आ गयी। जब मैं गांव में था तो उस समय हमारे यहां पर लोगों के कान  बूंखाल मेले में के बलि के बारे में जानकारी जान कर हस्तप्रद थें। वहां पर हजारों की संख्या में बलि होती थी। पौडी जनपद के बालि कण्डारस्यूं पट्टी में कालिंका के नाम से प्रसिद्व इस मेले में बलि प्रथा बंद हुई तो सरकार के दण्ड के दम पर, हालांकि लोगों में कुछ जागृति भी आयी। ऐसी जागृति हमारे क्षेत्र में ही नहीं पूरे प्रदेश में आयी। मेने देखा जब मैं गांव में था तो हमारे यहां चैपता चैंरी व चिरखून गांव में हो रही माॅं भगवती की अठवाड पूजा नृत्य में बलि कई वर्षो से नहीं की जा रही है। ऐसी ही चमोली जिले के गणाई गांव में भी ऐसा ही प्रयास किया जा रहा है। गांव में इसी पखवाडे 64 साल बाद एक अनुष्ठान आयोजित किया गया। यहां पर 64 बलि देने का विधान था। पशु बलि रोकने के लिए जिला पंचायत अध्यक्ष और प्रशासन के अधिकारी ग्रामीणों से बातचीत के बाद मामला सुझा। वहीं  दूसरी ओर प्रशासन ने पूजा स्थल पर निषेधाज्ञा लगा देने और एहतियातन पुलिस बल भी तैनात देने से जोशीमठ तहसील के गंणाई गांव में 64 साल बाद चंडिका भगवती के मंदिर में पूजा अनुष्ठान सात्त्विक रूप से सम्पन्न हुआ। कई सामाजिक संस्थाओं ने लोगों में जागृति लाने का काम किया। टिहरी में यही काम कई वर्ष पहले माॅं चन्द्रबदनी में किया गया। ऐसा ही कुमायूं मण्डल में भी बलि प्रथा को रोकने के लिए किया गया। यह कार्य निरंतर चल रहा है। परन्तु सवाल यह है कि अगर बलि प्रथा जीव हत्या है तो देश की सरकारों के लिए यही कार्य पुण्य क्यों? क्यों सरकार देश में तमाम कत्लगाह बंद नहीं करती। एक देश में दो विधान नहीं चलने चाहिए। सरकार को देश में  हिन्दू, मुस्लिम सहित अन्य धर्मो के इस प्रकार के पर्वो पर दी जाने वाली बलि या कुर्वानी पर प्रतिबंध के साथ देश के तमाम कत्लगाह बंद कर देश की जनता से देश की संस्कृति को अब तक कलंकित करने के लिए माफी मांगनी चाहिए। शेष श्रीकृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।

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