भारत के नहीं अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए क्यों उतावले हैं प्रधनमंत्री मनमोहन



भारत के नहीं अमेरिका के हितों की रक्षा के लिए क्यों उतावले हैं प्रधनमंत्री मनमोहन/
- एनजीओ, मीडिया, न्यायपालिका व प्रधानमंत्री को दायरे में रखने वाले लोकपाल का गठन रके सरकार /
प्यारा उत्तराखण्ड
 अमेरिका की बहु राष्ट्रीय बड़ी कम्पनियों के लिए भारतीय खुदरा बाजार खोलने की मनमोहन सरकार की अंधी जिद्द के कारण संसद का शीतकालीन सत्र का एक सप्ताह से अधिक  हाय हल्ला की भैंट चढ़ गया।  आखिरकार मनमोहनसरकार को अपना कदम मजबूरी में वापस लेना पडा।  इस प्रकरण से एक बात देश के प्रबुद्व जनों को समझ में नहीं आ रही है कि जब देश में मंहगाई, आतंकवाद, भ्रष्टाचार व बेरोजगारी  से देश त्रस्त है ऐसे में इन ज्वलंत समस्याओं का समाधान करने के बजाय देश की केन्द्र सरकार क्यों अमेरिका के हितों की पूर्ति के लिए देश का खुदरा बाजार खोलने के लिए उतावली हो रही है। मनमोहन सिंह सरकार के कार्यो पर एक नजर मारी जाय तो स्पष्ट हो जाता है कि यह सरकार देश की ज्वलंत समस्याओं के निदान करने में न केवल नितांत असफल रही अपितु यह सरकार इन समस्याअ ों के समाधान करने के लिए ईमानदार भी नहीं रही।
देश में चारों तरफ से अमेरिका, पाक व चीन का शिकंजा कस रहा है।  उस समय देश के हितों की रक्षा के लिए मजबूत कदम उठाने के बजाय वह अमेरिका के हितों के पोषण या उसकी रणनीति को अमली जामा पहनाने का काम करते ही नजर आते है। मामले चाहे अमेरिका से परमाणु समझोता करने का हो या कश्मीर समाधान की दिशा में उठाने वाले कदम का हो। मनमोहन सरकार के ये सब कदम भारतीय हितों की पूर्ति करते कम अमेरिका के हितों की रक्षा करते हुए ज्यादा नजर आते हे।
मनमोहन सिंह सरकार का दायित्व मंदी के दौर से दम तोडती अमेरिकी अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने का नहीं अपितु भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का है। हो सकता है खुदरा व्यापार को खुलने से कई लाभ हों परन्तु देश के करोड़ों लोगों के जीवन को अंधकार व अनिश्चिता के गर्त में धकेलने के कीमत पर इतनी हाय तौबा इस को लागू करने के लिए क्यों मनमोहन सरकार मचा रही है। वह भी अपनी सरकार के अस्तित्व को खतरे मंे डाल कर भी। अमेरिका से परमाणु समझोता करते समय भी ऐसा ही काम मनमोहन सिंह ने किया। वाजपेयी की तरह मनमोहन सिंह ने भी कभी अपना अमेरिका प्रेम छिपाया नहीं। अमेरिका के ईशारे पर या अमेरिका को खुश करने की अंधी ललक से भारतीय हितों की किस निर्ममता से हत्या हुई इसका अंदाजा न तो इन सरकार के पेरोकारों को है व नहीं इनके समर्थकों को। देश इस समय अण्णा हजारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन व बाबा रामदेव का काले धन की वापसी का आंदोलन से देश जुझ रहा है। देश की जनता भी इस आंदोलन में भागेदारी निभा रही है, ऐसे में मजबूत जनलोकपाल जिसमें एनजीओ, मीडिया, प्रधानमंत्री , नौकरशाही व न्यायपालिका सहित पूरा तंत्र समाहित हो , को संसद में पारित कराने के बजाय विदेशी कम्पनियों के लिए देश के एक बडे वर्ग को बदहाल करने के लिए द्वार खोलने के लिए अपनी सरकार को व अपनी पार्टी को दाव पर लगाना या जोखिम में डालने की मनमोहन सिंह की क्या मजबूरी होगी। मनमोहन सिंह अपनी जिम्मेदारी भारत की जनता या पार्टी के प्रति समझने के बजाय क्यों अमेरिका के प्रति समझ रहे है। 5 दिसम्बर  सोमवार को लोकसभा में सदन के नेता प्रणब मुखर्जी ने विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और माकपा नेता सीताराम येचुरी से सदन चलाने के मसले पर बात की। प्रणब ने बताया कि सरकार फिलहाल एफडीआइ के मुद्दे को स्थगित करने जा रही है और अब विपक्ष सदन चलाने में सहयोग करने की अपील कर अपनी रणनीति को उजागर किया। सरकार के इस कदम का उद्योग जगत से लेकर अधिकांश लोग विरोध कर रहे हे। यही नहीं कांग्रेसी नेता भी अपनी सरकार की इस मंशा के पक्ष में अंदर से सहमत नहीं है।  सोनिया गांधी को चाहिए कि अविलम्ब मनमोहन सिंह को देश के प्रधानमंत्री पद से हटा कर अपने दल की भारी मांग पर राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के पद पर आसीन कर देश को अमेरिका के शिकंजे से मुक्त करने में अपने दायित्व का निर्वाह करना चाहिए।

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