बाघ द्वारा मारे जाने पर 50 लाख रूपये दे सरकार
बाघ द्वारा मारे जाने पर 50 लाख रूपये दे सरकार
- बाघ मारने पर लोगों को हो आजीवन कारावास
- बाघ द्वारा मारे गये लोगों की हत्या की जिम्मेदारी ले सरकार,
- हिंसक बाघ के संरक्षित क्षेत्र के उच्चाधिकारी को भी हो आजीवन सजा
आज देश के वातानुकुलित शहरों में रहने वाले रणनीतिकार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि देश में बाघों को बचाया जाय। इसके लिए वे बाघ मारने पर कडे से कड़े यानी उम्र केद के सजा का प्रावधान करने पर जोर दे रहे है। वहीं पूरे हिमालयी राज्यों में इस बात से सदियों से हिमालयी पर्यावरण की रक्षा करने वाले लोग देश के हुक्मरानों से सवाल कर रहे हैं कि उनके घर व गांवों में घुस कर उनकी जानमाल का नुकसान करने वाले बाघ की सजा व इसकी जिम्मेदारी सरकार ग्रहण करे। आदमखोर बाघों द्वारा गांवों व खेतों तथा ग्रामीण जंगलों में घुसकर हमला करने के लिए जब तक सरकार जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करती, तब तक यह बाघ संरक्षण कानून पूरी तरह से एक प्रकार से हिमालयी लोगों पर सरकारों द्वारा किया जाने वाला जुल्म से कम नहीं है। सरकार नियम बनाये कि अगर हिमालयी राज्यों में कोई बाघ किसी आदमी को मारता है तो केन्द्र व राज्य सरकार उसके लिए 50 लाख का क्षतिपूर्ति देने के साथ साथ उस बाघ के संरक्षक क्षेत्र के उच्चाधिकारी को भी आजीवन कारावास की सजा हो। इसके साथ पूरे हिमालयी क्षेत्र में आबादी के समीप पड़ने वाले तमाम टाइगर प्रोजेक्टों को बंद किया जाय या उनसे बाघों का बाहर न निकल पाये इसका इंतजाम किया जाय। इसके साथ ही सरकार को हिमालयी राज्यों में कदम कदम पर बनाये जा रहे बांघों व बाघ संरक्षण पार्कों से हिमालयी राज्यों के निवासियों को उजाड़ने की नीतियों पर अविलम्ब अंकुश लगाना होगा। पर्यावरण का पाठ आज शहरों में वातानुकुलित यंत्रों से तबाह करने वालों को कम से कम सदियों से वन सहित विश्व पर्यावरण को बचाने वाले हिमालयी राज्यों के पर्यावरण रक्षकों को तो नहीं देना चाहिए।
हिमालयी राज्यों के लोग इस बात से भी आक्रोशित है कि शहरों में वातानुकुलित भवनों में बैठ कर हिमालयी राज्यों के लोगों के जीवन को पर्यावरण व वन जीव जन्तु अधिनियम की आड़ में नरक बनाने वाले क्यों अपने अपने शहरों में बाघ संरक्षण पार्क बनाते हैं। सदियों से हिमालयी पर्यावरण के रक्षकों पर पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण के नाम पर यह जुर्म किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं है। एक तो सरकार ने इन हिमालयी लोगों के शांत संसार में अतिक्रमण करते हुए मनमाने ढ़ंग से जहां तहां बाघ संरक्षण पार्क, अभ्याहरण, राष्ट्रीय वनाक्षेत्रादि बना कर वन संरक्षकों के जीवन पर अतिक्रमण करके उनके हक हकूकों पर घोर अतिक्रमण ही कर दिया है। हिमालयी क्षेत्र के लोग वनो के साथ साथ वन्य जीवों की रक्षा सदियों से करते आये हैं। चिपको सहित विश्व स्तर के वन बचाओं व वन जीव बचाओं अभियान उनके द्वारा ही चलाये गये। परन्तु देश के हुक्मरानों ने विश्व पर्यावरण व वन्य जीवों को बचाने के लिए उनको पुरस्कृत करने के बजाय उनके जीवन पर ही नहीं अपितु उनके विकास पर भी पर्यावरण व वन्य जीव संरक्षण कानून से ग्रहण ही लगा दिया है। यही नहीं कुछ माह पहले रूद्रप्रयाग जनपद में यहां पर अंधाधुंध बन रहे बांधों के विरोध करने वाले पर्यावरण रक्षकों को सरकार ने बंद किया हुआ है। यह कैसी सरकार व कैसी उसकी नीतियां जो विश्व पर्यावरण की सीधे सीधे विरोधी है।
इस सप्ताह सोमवार 29 मार्च को जहां देश की राजधानी के वातानुकुलित भव्य महलनुमा विज्ञान भवन में केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्तर की बाघों के संरक्षण पर आयोजित एक संगोष्ठी में देश में बाघों की घटती हुई जनसंख्या पर चिंता जतायी जा रही थी, उसी समय 60 प्रतिशत से अधिक वनाक्षेत्र वाले देश के प्रमुख हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड की विधानसभा में पूरा विपक्ष प्रदेश के सबसे बड़े जनपद पौड़ी के रिखणीखाल विकासखण्ड के धामधार गांव में बाघ प्रकरण पर जेल भेजे गये लोगों को निर्दोष बताते हुए विधानसभा से बहिर्गमन कर रहे थे। इन दोनों प्रकरणों के दौरान पूरे उत्तराखण्ड के लोग सरकार की तथाकथित बाघ संरक्षण नीति को ही जनविरोधी बताते हुए धामधार प्रकरण पर आक्रोशित थे। वहीं इस घटना के विरोध में रविवार से ही रिखणीखाल प्रखण्ड मुख्यालय में भारी संख्या में लोगों ने इस प्रकरण में तीन ग्रामीणों को जेल भेजने पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। इसके एक दिन बाद पौड़ी गढ़वाल जनपद के तहसील चैबट्टाखाल की ग्राम सभा गडरी के ताली गांव में गुलदार ने युवक पर हमला कर उसे घायल कर दिया। पर सरकार का शर्मनाक मौन क्यों? सरकार को ऐसे दमनकारी कदमों को बंद करते हुए तत्काल जेल में भेजे गये लोगों को रिहा करके दोषी अधिकारियों को कड़ी सी कड़ी सजा देनी चाहिए।
इस सप्ताह दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित संगोष्ठी में बताया गया कि दो दशक तक लगातार घटने के बाद आखिरकार भारत में बाघों की संख्या में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। 2006 से 2010 के बीच 30 फीसदी बढ़ोतरी के साथ बाघों की संख्या अब 1706 हो गई है। कर्नाटक में सबसे ज्यादा 320 बाघ हैं। लेकिन, बाघों की संख्या में इस जबरदस्त बढ़ोतरी के पीछे इनकी गिनती में पश्चिम बंगाल के सुंदरवन और नक्सली प्रभाव वाले इलाकों को शामिल करना माना जा रहा है। सुंदरवन में 70 बाघ पाए गए जो 2006 की गिनती में शामिल नहीं थे। दो दशक पहले भारत में बाघों की संख्या तीन हजार से अधिक थी, जो 2006 में केवल 1411 रह गई थी। बाघों की तेजी से घटती संख्या से चिंतित सरकार ने उन्हें बचाने के लिए नए प्रयास शुरू किए। जाहिर है ये प्रयास रंग लाए और पिछले चार सालों में बाघों की संख्या में 295 की बढ़ोतरी हो गई। लेकिन, इस बढ़ोतरी को वन्यजीव विशेषज्ञ पर्याप्त नहीं मान रहे। दरअसल, बढ़ी संख्या में अकेले सुंदरवन के ही 70 बाघ शामिल हैं। इसके साथ ही इस बार की गिनती में उन नक्सल प्रभावित इलाकों को भी शामिल किया गया था जो पिछली बार छूट गए थे। गलती की गुंजाइश कम करने के लिए दिसंबर, 2009 से दिसंबर, 2010 तक पूरे एक साल तक बाघों की यह गिनती तीन चरणों में की गई। पहले चरण में लगभग पौने पांच लाख वन कर्मचारियों ने बाघों द्वारा छोड़े गए निशानों की पहचान की और उनके आधार पर उनकी संख्या का आंकलन किया।दूसरे चरण में सेटेलाइट कैमरों की मदद ली गई। तीसरे चरण में जंगल में लगे विशेष कैमरों की मदद से अलग-अलग बाघों की पहचान कर उनकी गिनती की गई। तीनों चरणों में मिले आंकड़ों के वैज्ञानिक विश्लेषण के बाद बाघों की संख्या का आंकलन किया गया।
देश के हुक्मरान किस प्रकार की गैरव्यवहारिक नियम कानून बनाते हैं यह धामधार प्रकरण से ही पूरी तरह बेनकाब हो गया है। इस गांव में इस हिंसक बाघ का आतंक मचा हुआ था। इसने इस गांव के तीन लोगों पर हमला कर दिया था। असहाय लोगों ने वन विभाग व प्रशासन से लम्बे समय से गुहार लगायी थी। एक बार पहले भी वन विभाग के लोगों ने इसको पकड़ कर वहीं छोड़ दिया। इसके बाद इस बाघ ने ग्रामीणों पर हमला किया। इस प्रकरण से सहमें ग्रामीणों की गुहार पर पकडे गये इस बाघ को पकड़ कर सुरक्षित गांव से ले जाने के बजाय वन विभाग व सरकारी कर्मचारियों ने पीड़ित लोगों के जख्मों को कुदेरने व उनको भयभीत करने के लिए वही गांव में रख दिया। सरकारी इस दमन के खिलाफ न केवल पौड़ी अपितु पूरे उत्तराखण्ड के लोग आंदोलित है। इस काण्ड सें पूरे हिमालयी राज्यों में सरकार की पर्वतीय जन विरोधी नीतियों को पूरी तरह से बेपर्दा ही कर दिया। अगर इस प्रकार की अव्यवहारिक नीतियों को संशोधन करके हिमालयी राज्यों के निवासियों के हितों को ध्यान में रखते हुए नीतियां नहीं बनायी गयी तो इससे पूरे विश्व का पर्यावरण व शांति खतरे में पड़ जायेगी। शेष श्री कृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय नमो।
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