देश की सुरक्षा के लिए सीमान्त प्रांत उत्तराखण्ड में मूल निवास 1960 रखे सरकार

उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा भी भाजपा व कांग्रेस की तरह कुर्सी रक्षा मोर्चा बन कर रह गया

झारखण्ड व छत्तीसगढ़ जेसे राज्य में भी राज्य गठन मूल निवास का वर्ष राज्य गठन के समय सन 2000 नहीं अपितु इससे कई दसक पहले माना गया। परन्तु उत्तराखण्ड जैसे सीमान्त राज्य में प्रदेश की सरकार द्वारा ठोस जनहित का निर्णय न लिये जाने के कारण व उच्च न्यायालय के समक्ष सही ढ़ग से संवैदनशील तथ्यों को नहीं रखने के कारण उच्च न्यायालय ने मूल निवास का आधार राज्य गठन का वर्ष 2000 माना। उच्च न्यायालय  के फेसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में गुहार लगाने पर जिस प्रकार उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा ने प्रदेश व देश के हितों को नजरांदाज करते हुए जिस प्रकार से घडियाली आंसू बहाते हुए नैनीताल उच्च न्यायालय के फेसले का समर्थन किया उससे साफ हो गया कि उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा के अध्यक्ष सेना के पूर्व ले.जनरल तेजपाल सिंह रावत व उनका दल भी कांग्रेस व भाजपा की तरह केवल अवसरवादी राजनीति करते हैं। मोर्चा को अपना नाम भी उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा से हटा कर कुर्सी रक्षा मोर्चा करना चाहिए।
  विधानसभा का विशेष अधिवेशन बुला कर इस पर ठोस कानून बना कर कम से कम मूल निवास को 1960 को निर्धारण करना चाहिए। इसके साथ  मूल निवासी उसी को मानना चाहिए जो वैध ढ़ग से यहां पर विगत 30 साल से निवास कर रहा हो। इसके साथ अवैध ढ़ग से यहां पर रहने वाले बंगलादेशी व पाकिस्तानी घुसपेटियों के अलावा बहार से आये अपराधियों , भू माफियाओं को तत्काल यहां से बाहार खदेड़ने तथा उनकी सम्पति को जब्त करने का कानून कडाई से बनाना चाहिए। इसके साथ प्रदेश सरकार को तुरंत सर्वोच्च न्यायालय में सीमान्त प्रदेश की संवेदनशील स्थिति व देश में घुसपेट की समस्या  दोनों की वास्तविक स्थिति को सामने रखनी चाहिए। इसके साथ देश के पूर्वोत्तर राज्य सहित उत्तराखण्ड के साथ गठित हुए झारखण्ड व छत्तीसगढ़ के मूल निवास के तथ्यों को उच्चत्तम न्यायालय के समकक्ष भी रखे।
जिस प्रकार से देश में बंगलादेशी व पाक से निरंतर लाखों की संख्या में घुसपेट हो कर देश के असम सहित कई राज्यों मेें काबिज हो कर वहां की शाति भंग कर मूल निवासियों को हासिये में धकेलने का खुलेआम षडयंत्र कई दशकों से केन्द्र व राज्य सरकारों की मूक सहमति से चल रहा है उससे देश की सुरक्षा पर गंभीर खतरा पैदा हो गया है। जिस प्रकार से देश के सीमान्त प्रदेशों में किसी भी प्रकार की घुसपेट को रोकने के लिए सेना की चैकसी जरूरी है उसी तरह इन प्रदेशों में किसी प्रकार की घुसपेट कर आश्रय बना कर रहने वाले घुसपेटियों पर अंकुश लगाने का दायित्व प्रदेश व केन्द्र सरकार के नागरिक प्रशासन का है। सीमान्त प्रदेश उत्तराखण्ड में यह समस्या उस समय आम जनता की नजरों में आयी जब सितारगंज विधानसभा चुनाव में जीतने के लिए प्रदेश के मुख्यमंत्री ने निर्वाचन आयोग की धृतराष्ट्री वृति का फायदा उठाते हुए हजारों बंगाली समुदाय के लोगों को भूधारी पटा देने का ऐलान किया। 1990 के बाद जिस प्रकार से सुनियोजित ढ़ग से उत्तराखण्ड  में भारी संख्या में घुसपेट हुई उस पर न तो प्रदेश सरकार व नहीं केन्द्र सरकार ने जरा सी भी चिंता करने की जरूरत नहीं समझी। यह सीमान्त प्रांत है इसमें ऐसी घुसपेट राष्ट्र के लिए खतरा हो सकता है।
भारत में यह समस्या यहां सत्ता में काबिज होने के लिए देश व प्रदेश के हितों को नजरांदाज करने वाले निहित स्वार्थी राजनेताओं व सत्तालोलुपु राजनेतिक दलों के कारण आज बद से बदतर हो गयी है। आज कश्मीर, पूर्वोत्तर, बंगाल, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश, दिल्ली व उत्तराखण्ड सहित कई राज्यों में यह समस्या विकराल होने को हैं परन्तु सरकारें खुफिया ऐजेन्सियों द्वारा बार बार आगाह करने के बाबजूद इसको नजरांदाज कर रही है। जिस प्रकार से पूरे षडयंत्र की तरह
 देहरादून में उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा के अध्यक्ष ले. जनरल तेजपाल सिंह रावत ने मूल निवास व जाति प्रमाण पत्र पर हाई कोर्ट द्वारा राज्य गठन के समय यानी सन 2000 को मानने का समर्थन करते हुए इस फेसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देने पर घडियाली आंसू बहाने की खबरे जो अखबारों में छपी उससे साफ हो गया कि सेना के वरिष्ट अधिकारी को भी जब देश की सुरक्षा के इस संवेदनशील मुद्दे की गंभीरता का भान नहीं होगा तो चूना बजरी की चोरी या झूठ बोल कर कानून का गला घोंटते घोंटते राजनेता बने हुक्मरानों को कहां से देश की सुरक्षा का भान होगा। इससे साफ हो गया कि उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा को भी उत्तराखण्ड के हितों से अधिक अपनी सत्तालोलुपता की चिंता है। भाजपा व कांग्रेस के कुशासन के खिलाफ हंुकार भरते हुए अपनी जीवन यात्रा प्रारम्भ करने वाले उत्तराखण्ड रक्षा मोर्चा का मैने खुला समर्थन किया था। परन्तु मूल निवास प्रमाण के मामले पर जब ये बेनकाब हुए तो मुझे लगा कि ये भी खण्डूडी, तिवारी, हरीश रावत, सतपाल महाराज, निशंक व बहुगुणा आदि वर्तमान नेताओं की तरह प्रदेश के हितो को अपने स्वार्थ के लिए या तो मूक रह सकते हैं या दाव पर लगा सकते है। ले. जनरल तेजपाल सिंह रावत  में जरा सा भी अगर प्रदेश हितों का भान है तो वे अपने इस मामले में प्रदेश की जनता से माफी मांगे और इस निर्णय पर अवसरवादी दृष्टिकोण भाजपा व कांग्रेस की तरह न अपनायें।

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