मवेशियों चराने व घासफूस खाकर गरीबी में बचपन गुजारने वाले चीनी साहित्यकार मो येन को मिला नोबेल पुरस्कार
प्रतिभा कभी न तो धनपशुओं व सत्तासीनों और तथाकथित उच्च वर्ग की गुलाम नहीं होती है, प्रतिभा गरीब की झोपडी में भी रोशन हो सकती है। यह कहावत सच साबित तब हुई जब विश्व प्रतिष्ठित साहित्य का नोबेल पुरस्कार चीन के मो येन को प्रदान किया गया। बचपन में मवेशियों को चराने व घास फूस खाकर पेट भरने के लिए मजबूर रहे चीनी साहित्यकार मो येन को मिला साहित्य का नोबल पुरस्कार । 57 वर्षीय मो येन पहले चीनी लेखक है जिनको साहित्य का 2012 का नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। मो येन का असली नाम गाओ शिगजिएन है परन्तु वे मो येन के नाम से साहित्य जगत में विख्यात है। मो येन का चीनी भाषा में अर्थ होता है मत बोलो। साहित्य का 109 वां नोबेल पुरस्कार विजेता मो येन गरीबी के कारण व चीन में सांस्कृतिक क्रांति के दौरान मवेशियों को चराने के साथ साथ पेडों की छाल व घासफूस खा कर जीवन यापन करने के लिए मजबूर भी होना पडा। यही अनुभव उनके जीवन में साहित्य की दिशा देने वाली प्रेरणादायक शक्ति बनी हुई है। चीनी सेना यानी पीपल लिब्रेशन आर्मी के सिपाही रहे मो येन के शब्दों में अकेलापन व भूख उनके लेखन जगत के अभिन्न अंग है। उन्होंने अपनी स्वयं भोगी पीडा व अनुभव के आधार पर ही वे भ्रष्टाचार से निपटने, चीनी समाज के पतन, ग्रामीण जीवन और चीन की एक बच्चा नीति के बारे लिख पाए.। उनकी प्रसिद्ध उपन्यास ‘रेड सोरगम’, रिपब्लिक आॅफ वाइन, लाइफ एंड डेथ आर वेयरिंग मी आॅउट और बिग ब्रेस्ट, वाइंड हिप्स को काफी सराहना मिली। उनके नये उपन्यास ‘फ्रॉग को मॉओ डुन’ जो चीन में एक बच्चे की नीति के बारे में था को चीन का सबसे प्रतिष्ठित साहित्य पुरस्कार दिया गया।
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