खतरनाक षडयंत्र है अंग्रेजी फांस से लोकशाही का गला घोंटना


भारतीय प्रशासनिक सेवा व भारतीय पुलिस सेवा सहित भारत की सर्वोच्च नौकरशाही का चयन परीक्षा के माध्यम से करने वाले महत्वपूर्ण संस्थान संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी ) ने अपनी परीक्षा में किये बदलाव ने सियासी हंगामा खड़ा कर दिया मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चैहान ने इसके पुरजोर विरोध करते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिख कर इसे न केवल भारतीय लोकशाही, भारतीय स्वाभिमान अपितु इसे भारतीय राष्ट्र के ढांचे पर गहरा कुठाराघात बताया। वहीं इस के विरोध में संघ लोकसेवा आयोग के समक्ष अंग्रेजी अनिवार्यता के विरोध में विश्व का सबसे लम्बा धरने का संचालन करने वाले भाषा के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान ने भी अपने भाषा आंदोलन के साथियों के साथ इसके पुरजोर विरोध करने के लिए कमर कस ली है। संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा प्रणाली में हुई ताजा तब्दीली के मुताबिक अब अंग्रेजी भाषा की परीक्षा देना अनिवार्य होगा जिसके नंबर मेरिट में भी जुड़ेंगे। पहले अंग्रेजी के साथ-साथ किसी एक भारतीय भाषा की परीक्षा में न्यूनतम अंक पाना भी अनिवार्य था लेकिन इसके नंबर मेरिट में नहीं जुड़ते थे। जैसे ही देश में इसकी भनक लग रही है इसका पूरे देश में भारी विरोध में देश का स्वाभिमानी युवा अब निर्णायक आंदोलन के लिए मन बना चूका है। शिवसेना ने इस फैसले को मराठी के खिलाफ बताते हुए आंदोलन छेड़ दिया है। वहीं बाकी विपक्ष भी सरकार के इस फैसले का पुरजोर विरोध कर रहा है।
गौरतलब है कि भारत की लोकशाही को संचालित करने वाली नौकरशाही का चयन संघ लोकसेवा आयोग करता है। आयोग इसके लिए जो प्रमुख परीक्षा सिविल सेवा परीक्षा का आयोजन करता है उसमें सर्वोच्चांक लेने वाले ही भारतीय प्रशासनिक सेवा व भारतीय पुलिस सेवा सहित और भारतीय विदेश सेवा सहित पूरी नौकरशाही में आसीन हो कर इस देश का प्रशासन संभालते हैं। लेकिन आयोग की परीक्षा पद्धति में बीस साल बाद कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जिससे राजनीतिक माहौल गरमा गया है। शिवसेना ने खासतौर पर मराठी की उपेक्षा का मुद्दा उठाते हुए सड़क से लेकर संसद तक का मसला बना दिया है। उसने चेताया है कि अगर मराठी को वैकल्पिक विषय के रूप में मान्यता नहीं दी गई तो वो महाराष्ट्र में सिविल सेवा की परीक्षा होने ही नहीं देगी। शिवसेना ने इस मुद्दे को जोरशोर से राज्यसभा में भी उठाया।
सबसे हैरानी इस बात की है कि आखिर क्यों भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने सिविल सेवा की महत्वपूर्ण परीक्षा में अंग्रेजी की इस अनिवार्यता को कुछ समय पहले मंजूरी दी । हालांकि इस परीक्षा प्रणाली में बदलाव का फैसला विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर अरुण एस निगवेकर के नेतृत्व में गठित समिति की सिफारिशों के आधार पर किया गया है। यह विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की इस राष्ट्रघाती भूल को आखिर देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आंखे बंद करके क्यों स्वीकार कर लिया। आखिर मनमोहन सिंह को इस बात का भी भान नहीं है कि वे आजाद भारत के प्रधानमंत्री है। उनका दायित्व भारतीय लोकशाही की रक्षा करने के साथ साथ देश के स्वाभिमान की रक्षा करने का प्रथम दायित्व है। प्रधानमंत्री की स्वीकृति के बाद ही संघ लोकसेवा आयोग ने इस आशय की अधिसूचना जारी की। इसके अनुसार ही 2013 की परीक्षा संचालित होगी। अब अंग्रेजी की परीक्षा अनिवार्य होगी। अंग्रेजी परीक्षा में मिलने वाले अंक मेरिट में भी जोड़े जाएंगे। इसके अलावा किसी भाषा के साहित्य को बतौर वैकल्पिक विषय वही लोग चुन सकेंगे, जिन्होंने बीए में वो विषय पढ़ा होगा। पुराने पाठ्यक्रम में अंग्रेजी के साथ-साथ एक भारतीय भाषा में न्यूनतम अंक पाना ही जरूरी था। इन परीक्षाओं के नंबर मेरिट में नहीं जुड़ते थे।
इस बदलाव का अभी आम भारतीय जनमानस को भान नहीं है। जिस दिन देश का आम जनमानस देश के हुक्मरानों के इस षडयंत्र का सही ढ़ग से भान होगा तो उस दिन इस देश के हुक्मरानों को पश्चाताप करने के लिए इस देश में कहीं भी जगह नहीं मिलेगी। अभी सत्तापक्ष की तरह राष्ट्रीय स्वाभिमान व लोकशाही का गला घोंटने की इस षडयंत्र का पुरजोर विरोध उस प्रमुखता से नहीं कर पा रही है, जिस प्रचण्डता से इसका विरोध किया जाना चाहिए था। यह षडयंत्र एक प्रकार से देश की आजादी को एक प्रकार से कलंकित करने वाले कदम से कम नहीं है। अभी आधे अधूरे मन से विपक्ष इसे जनविरोधी फैसला बता रहा है। अभी शिवसेना ही इसका विरोध कर रही है। उसने चेताया है कि भारतीय भाषाओं को उपेक्षित करने का खामियाजा सरकार को भुगतना पड़ेगा। लेकिन सरकार इस आरोप को खारिज कर रही है कि उसका इरादा भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का है। वहीं अभी इसका विरोध न तो लोहिया का नाम जपने वाली मुलायम सिंह की सपा कर रही है व नहीं इसका विरोध अभी भारतीय जनता पार्टी प्रचण्डता से कर पा रही है। यही नहीं भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी की गुलामी की अनिवार्यता वाली बेडियों में दम तोड़ने के लिए मजबूर करने वाली यह केवल मराठी की उपेक्षा का सवाल नहीं है यह सवाल तमाम भारतीय भाषाओं से बढ़कर देश की लोकशाही व देश के स्वाभिमान का भी है।
सरकार के इस देश के स्वाभिमान को रौंदने वाले इस भौचंक्का कर देने वाले दुराग्रह के पीछे इस देश में आजादी के 65 साल बाद भी बेशर्मी से काबिज चंद प्रतिशत अंग्रेजी गुलामी की पालकी को भारत में थोपने वाले गुलामों के अंदर भारतीय भाषा के माध्यम से बड़ी संख्या से सिविल सेवा परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले आम भारतीयों से अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता नजर आता है। उनको आशंका है कि अगर चंद साल इसी तरह का क्रम जारी रहा तो अंग्रेजीदा लोगों की संख्या नौकरशाही में दिन प्रतिदिन बेहद कम होती जायेगी । इसी कारण सरकार ने अब अंग्रेजी की अनिवार्यता को लागू करके अंग्रेजी माध्यम वाले स्कूल-कॉलेजों से निकले लोगों को फायदा पंहुचाने का कार्य किया। इससे न केवल भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा पाने वालों को नुकसान होगा अपितु देश की संस्कृति व अखण्डता दिन प्रतिदिन कमजोर होती जायेगी। इसके साथ इससे दलित, पिछड़े व उपेक्षित समाज को भारी नुकसान ही होगा। इस निर्णय को देख देश भक्त भारतीय ही नहीं अपितु प्रबुद्ध विदेशी भी परेशान हैं। यह बात मेरी समझ से परे हैं कि आखिर क्यों आजादी के 65 साल बाद देश में वही फिरंगी भाषा व नाम चल रहा है जिससे मुक्ति के लिए सैकडों साल की दासता मुक्ति मिलने पर भी फिर उसी दासता ‘अंग्रेजी भाषा ’का गुलाम बनने व बनानें में अपनी उपलब्धी मान रहे थे।
शेष श्री कृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।
 

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