आखिर कब तक जारी रहेगा भारत की आजादी को अंग्रेजी का गुलाम बनाये रखने का राष्ट्रघाती षडयंत्र!


अंग्रेजी की गुलामी के थोपने का भारी विरोध के कारण संघ लोकसेवा आयोग ने वापस ली अंग्रेजी अनिवार्यता का नियम 


नई दिल्ली (प्याउ)। आजादी के बाद पहली बार देश में अंग्रेजी सम्राज्य को आजादी के 65 साल बाद भी बनाये रखने वाले अंग्रेजों के स्वयंभू गुलाम हुक्मरानों को अपने नापाक मंसूबों को देश में मजबूत करने के कारण मुंह की खानी पड़ी। देश की लोकशाही, आजादी व स्वाभिमान को रौंद रही फिरंगी भाषा अंग्रेजी भाषा को  भारतीय शासन प्रशासन को संचालित करने वाले सबसे महत्वपूर्ण सेवाओं (संघ लोक सेवा आयोग की सिविल सेवा परीक्षा ) में केवल अंग्रेजीदा वर्ग का बर्चस्व और मजबूत करने तथा भारतीय भाषाओं के बढ़ते हुए भागेदारी पर अंकुश लगाने के लिए खतरनाक व राष्ट्रघाती षडयंत्र सिविल सेवा परीक्षा में सुधार के नाम पर जो 5 मार्च को अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता व इस के अंक मैरिट में जोडने तथा भारतीय भाषाओं को वनवास देने का जो तुगलकी फरमान जारी किया था उसका तमिलनाडू, गुजरात, मध्यप्रदेश की सरकारों के साथ साथ संसद में तमाम दलों ने भारी विरोध किया था। इसके विरोध में भारतीय भाषा आंदोलन ने 15 मार्च को ही संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर विरोध धरना दिया। आजाद देश में विदेशी भाषा को बलात थोपने के इस शर्मनाक कदम का पूरे देश में भारी विरोध को विकराल होने से पहले अंग्रेजी भाषा को भारत में थोपे रखने वालों ने अपने इस नापाक कदम को वापस लेने में ही अपनी भलाई समक्षी। स्थिति को भांपते हुए सरकार ने इस पर 15 मार्च को रोक लगाने का ऐलान किया।
अंग्रेजी की गुलामी को देश में बनाये रखने वाले  आयोग ने इसी पखवाडे को एक शुद्धिपत्र जारी करके किसी भी एक भारतीय भाषा और अंग्रेजी पेपर में अर्हता प्राप्त करने की पुरानी व्यवस्था बहाल कर दी। इसके साथ स्पष्ट किया कि इसमें प्राप्त अंकों को रैंकिंग के लिए जोड़ा नहीं जाएगा। हालांकि संघ लोकसेवा आयोग दावा करता है कि भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी के पेपर मैट्रिक या उसके समकक्ष स्तर के होते है और यह अर्हता प्रकृति के ही होंगे। इसको वह भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में प्रश्नपत्र का उद्देश्य अभ्यर्थियों की पढ़ने और गंभीर तर्कमूलक गद्य समझने की उनकी क्षमता और विचारों को स्पष्ट और सही तरीके से व्यक्त करने की परीक्षा लेना बताता है। परन्तु हकीकत यह है कि अंग्रेजी का स्तर माध्यमिक स्तर से बहुत ऊचे स्तर का है।
इस नये घटनाक्रम में संघ लोक सेवा आयोग ने 26 मई को होने वाली सिविल सेवा (प्रारंभिक) परीक्षा के स्वरूप में कोई परिवर्तन न करने की घोषणा भी की। परन्तु इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले परीक्षार्थियों को मुख्य परीक्षा में इस बार जो परिवर्तन किया गया है। उसके अनुसार इस बार मुख्य परीक्षा में नैतिकता, सत्यनिष्ठा और एपीट्यूड और निबंध के ढाई-ढाई सौ अंक के अलग अलग प्रश्नपत्र होंगे। अब कोई भी अभ्यर्थी साहित्य को वैकल्पिक विषय के रूप में ले सकेगा। इस मामले अब अभ्यर्थी पर यह शर्त नहीं होगी कि वह जिस भाषा के साहित्य को अपना वैकल्पिक विषय बना रहा है उस विषय में उसका स्नातक होना अनिवार्य है। परीक्षार्थियों को एक विशिष्ट विषय और अपनी पसंद की अंग्रेजी या भारतीय भाषा में निबंध लिखना होगा। आयोग द्वारा पेश नए नियम के तहत एक भाषा को परीक्षा के माध्यम के रूप में तभी स्वीकार किया जाएगा जब न्यूनतम 25 अभ्यर्थी ऐसा चाहें।
गौरतलब है कि इस कदम को उठा कर यकायक वापस लेने के पीछे देश में अंग्रेजी का वर्चस्व सदा बनाये रखने वाले नापाक गुट को इस बात की आशंका थी कि भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी भाषा के लिए दिया जा रहे  इस वनवास की खबर से अंग्रेजी गुलामी को बलात सह रहा आम भारतीय जनमानस जाग गया तो वह अंग्रेजी के इस एकछत्र सम्राज्य को ढ़ाह कर भारतीय भाषाओं का राज देश में न कर दे। इसी आशंका से सरकार ने  इस बार संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) ने सिविल सेवा की मुख्य परीक्षा में उसके द्वारा सुझावे गए परिवर्तनों को वापस लेते हुए अनिवार्य अंग्रेजी भाषा परीक्षा की आवश्यकता समाप्त कर दी है। गौरतलब है कि भारत के पूरे शासन प्रशासन को संचालित करने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय विदेश सेवा (आईएफएस) अधिकारियों का चयन करने के लिए प्रतिष्ठित सिविल सेवा परीक्षा , संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी ) लेता है। यही नोकरशाही देश में अंग्रेजी भाषा की इतनी गुलाम बन गयी कि वह आजादी के 65 साल बाद भी उसी फिरंगी भाषा अंग्रेजी से इस देश की लोकशाही, स्वाभिमान व आजादी को रौद कर इस देश में बलात अंग्रेजी का सम्राज्य थोपे हुए है। हालत इतनी शर्मनाक हो गयी कि देश में आज आजाद भारत में भी देश की भाषाओं में नहीं अपितु केवल अंग्रेजी भाषा में ही शिक्षा, न्याय, रोजगार व सम्मान मिल रहा है। आज भी देश के सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालयों में अंग्रेजी भाषा का राज चल रहा है। हालत इतनी शर्मनाक हो गयी कि सर्वोच्च न्यायालय व उच्च न्यायालय में भारतीय भाषाओं में भी न्याय की मांग को लेकर 2012 के दिसम्बर माह से ही श्याम रूद्र पाठक व साथी सप्रंग सरकार की अध्यक्ष सोनिया गांधी के निवास के बाहर निरंतर धरना दे रहे हैं परन्तु क्या मजाल है कि सत्तारूढ़ सप्रंग व विपक्ष में बेठी भाजपा के कानों में जूं तक नहीं रेंग रहा है। वहीं संघ लोक सेवा आयोग के देश की नौकरशाही में अंग्रेजी को बनाये रखने के षडयंत्र के खिलाफ व भारतीय भाषाओं से कार्यपालिका को संचालित करने की मांग को लेकर पुष्पेन्द्र चैहान व उनके भारतीय भाषा आंदोलन के साथी विगत 1988 से निरंतर आंदोलनरत है। इसी संघर्ष में भारतीय भाषा आंदोलन के एक महान पुरोधा राजकरण सिंह जी शहीद हो गये। परन्तु देश के राजनेताओं में ही नहीं देश की जनता में अंग्रेजी गुलामी का ऐसा खुमार चढ़ा है कि यह उनके सर से उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है।

देखना यह है कि इस प्रकार अपने ढह चूके फिरंगी सम्राज्य को बनाये रखने के लिए जिस प्रकार से देश के शासन प्रशासन में आजादी के बाद से काबिज हो चूके स्वयंभू फिरंगी गुलामों ने भारत में आजादी का सूर्योदय अपनी भारतीय भाषाओं में न होने दे कर देश में बलात उन्हीं अंग्रेजों की भाषा अंग्रेजी को थोप कर देश की आजादी को एक प्रकार से बंधक बना दिया है। इसी अंग्रेजी भाषा की गुलामी को धिक्कारने के लिए 1989 को (जिस दिन कर्नाटक के मुख्यमंत्री हेगड़े की सरकार बर्खास्त की गयी थी उसी दिन ) संसद दीर्घा से नारे बाजी करके भारत की आजादी को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति करने का भारतीय मुक्ति सेना के संघर्ष का शंखनाद देवसिंह रावत ने किया था। सबसे हैरानी की बात यह है कि संसार के चीन, स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, रूस, इटली, जापान व इस्राइल तमाम विकसित देश ही नहीं अपितु टर्की, इरान, इंडोनेशिया आदि देश भी अपनी भाषा में पूरे विश्व में विकास की परचम फहरा रहे है। संसार में चीनी भाषा के बाद सबसे अधिक बोली जाने वाली भारतीय भाषा हिन्दी आज अन्तरराष्ट्रीय भाषा बननी तो रही दूर अपने देश में अंग्रेजी की गुलामी करने के लिए अभिशापित हो रखी है। वहीं संसार की सबसे प्राचीन व वैज्ञानिक समृद्ध भाषा संस्कृति इसी अंग्रेजी गुलामी मानसिकता के हुक्मरानों के कारण आज मृत प्राय हो चूकी है। संसार में सबसे प्राचीन संस्कृति व दो दर्जन से अधिक समृद्ध भारतीय भाषाओं के होने के बाबजूद आज भारत में बलात फिरंगी भाषा अंग्रेजी, आजादी के 65 साल बाद भी शासन प्रशासन पर काबिज है। इसके बाबजूद देश में दर्जनों राजनैतिक दलों ,बुद्धिजीवियों व समाजसेवियों के कानों में जूं तक नहीं रेंग रही है। सबसे हैरानी की बात यह है अंग्रेजी गुलामी ओढ़े रहने की भारतीय हुक्मरानों व जनमानस की इस आत्मघाती प्रवृति से न केवल लोकतंत्र का अपितु देश की आजादी के लिए शहीद हुए लाखों शहीदों की शहादत का घोर अपमान हो रहा है।

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