विदेशी शासकों की गुलामी से खतरनाक है अंग्रेजी भाषा की गुलामी

आखिर कब तक भारतीय जार्ज पंचम व उसके वंशजों की जय हे जय है करते रहेंगे ?


देश में अंग्रेजी की अनिवार्यता के विरोध व भारतीय भाषाओं में शिक्षा, रोजगार, सम्मान व न्याय दिलाने का संघर्ष  मात्र भाषा की लडाई नहीं अपितु  हम सभी भारतीयों की अपने स्वाभिमान व लोकशाही की है। अपनी भाषा के बिना व्यक्ति ही नहीं समाज व राष्ट्र भी गूंगा व गुलाम होता है। भाषा की गुलामी विदेशी शासकों की गुलामी से बदतर होता है। भाषा की गुलामी से व्यक्ति, समाज व राष्ट्र अपने संस्कृति, अपनी जमीन व अपने इतिहास से कट कर उसी बलात थोपी गयी भाषा की मूल संस्कृति का की अंधा गुलाम बन जाता है। इस प्रकार व न तो अपनी मूल संस्कृति से जुडा रहता है व नहीं वह उस बलात आत्मसात की गयी भाषा की संस्कृति का ही बन पाता है। उसकी स्थिति रंगे हुए सियार की तरह दयनीय हो जाती है।
जिस विदेशी तंत्र से मुक्ति के लिए हमारे लाखों देशवासियों ने अपनी शहादत देते हुए सैकडों सालों का संतत् संघर्ष किया था उस आजादी को एक बार फिर उसी फिरंगी गुलामी के स्वयंभू गुलामों ने अपनी संकीर्ण मानसिकता व स्वार्थ के कारण पूरे देश में उन्हीं की भाषा अंग्रेजी को बलात थोप कर बंधक बना लिया है। शर्मनाक स्थिति यह है कि आज भारत में न तो विद्यालयों में भारतीय भाषा में शिक्षा ही मिल पा रही है व नहीं सही रोजगार व न्याय तथा सम्मान ही भारतीय भाषाओं में मिल पा रहा है। देश के अंग्रेजी भाषा के इन गुलाम कहारों ने पूरे देश में ऐसा तंत्र थोप दिया है कि इस देश में अच्छी शिक्षा, रोजगार, न्याय व सम्मान केवल अंग्रेजी भाषा की झोली में बंधक बना दिया है। आज जो बच्चे भारतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करते हैं उनको न तो रोजगार ही मिल सकता है व नहीं सर्वोच्च न्यायालय में भारतीय भाषाओं में न्याय ही मिल सकता है। इन सब पर फिरंगी भाषा अंग्रेजी की लक्ष्मण रेखा खीच कर वंचित कर दिया गया है। देश के नीति निर्माताओं को यानी नौकरशाही का चयन करने वाली संस्था ‘संघ लोकसेवा आयोग’ने इसी अंग्रेजी अनिवार्यता व जबरन ज्ञान होने की फांस डाल कर पूरे देश को अंग्रेजी का गुलाम बना कर भारत में अंग्रेजी का अघोषित गुलाम बना दिया है।
 अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा व ज्ञान विज्ञान की भाषा बता कर पूरे देश के स्वाभिमान व लोकशाही को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजी भाषा के गुलाम व भारत की लोकशाही से बलात्कार करने वाले देशद्रोही जयचंदों को इस बात का भान होना चाहिए कि चीन, जर्मन, फ्रांस, इटली, जापान, रूस, इस्राइल, इंडोनेशिया व टर्की आदि विकसित देशों ने अपनी अपनी भाषा में विकास की कूचालें भरी ना की अंग्रेजी का गुलाम बन कर। भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम होता है। वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि मातृभाषा में ही जो प्रतिभा का चहुमुखी विकास हो सकता है वह किसी दूसरी भाषा में नहीं। आजादी के बाद इन्हीं अंग्रेजी की जूठन खा कर स्वयंभू गुलाम बन कर अंग्रेजी से पूरे देश के स्वाभिमान व आजादी को रौंद कर इन जयचंदों ने न केवल भारतीय  लोकतंत्र का गला घोंटा  अपितु संसार की सबसे प्राचीन, समृद्ध व वैज्ञानिक भाषा संस्कृत सहित तमाम भारतीय भाषाओं को भी संस्कृत की तरह मृतप्राय बनाने का राष्ट्रद्रोही कृत्य किया। इनके इस कृत्य से भारतीय न केवल अपनी संस्कृति, अपनी भाषा से इसी षडयंत्र से वंचित कर दिया गया अपितु हर साल करोड़ों नौनिहालों को फिरंगी गुलामी के कहारों की आत्मघाती फौज तैयार हो गयी कि जिनको न तो अपनी मूल संस्कृति, इतिहास व नहीं सम्मान का भान रहता है वे केवल बलात थोपी गयी भाषा के बंधुआ मजदूर या तोते बन कर रह जाते है। संसार में ऐसा अभागा देश भारत के अलावा कोई दूसरा नहीं है जो अपनी भाषा, अपना नाम व अपनी संस्कृति को केवल इसी अंग्रेजी गुलामी का कहार बनने के कारण खुद ही गला घोंट रहा है। किसी व्यक्ति, समाज व राष्ट्र के लिए सबसे खतरनाक गुलामी  जेल या विदेशी शासक नहीं अपितु उससे उसकी भाषा से वंचित करने की गुलामी है। किसी भी भाषा में शिक्षा, रोजगार, सम्मान व न्याय न मिलने से वह भाषा मृतप्रायः हो जाती है। यही देशद्रोह आजादी के नाम पर भारत में 66 सालों से निरंतर हो रहा है। यह देश की आजादी को बंधक बनाने के सम्मान है। इसी के खिलाफ मेने संसद दीर्घा से अंग्रेजी गुलामी के खिलाफ 1989 में जिस दिन कर्नाटक में हेगडे की सरकार को बर्खास्त किया गया  था नारे बाजी करके खुली चुनौती दी थी। इसी के खिलाफ निरंतर संघर्ष चल रहा है। बलात विदेशी भाषा थोपना, किसी देश में सबसे बडा अपराध, जनद्रोह, सबसे बडा भ्रष्टाचार व सबसे बडा मनावाधिकार हनन का मामला है।  गांधी जी सहित देश के चिंतक इसी लिए आजादी के तुरंत बाद विदेशी भाषा अंग्रेजी से मुक्त करना चाहते थे। भाषा अपनी संस्कृति की वाहिका भी होती है। भारतीय भाषा भारतीय संस्कृति व अंग्रेजी अंग्रेजों की संस्कृति की वाहिका है। भाषाओं का ज्ञान होना अच्छा है। देश में कोई किसी भी देशी या विदेशी भाषा को सीखना चाहता है यह स्वागतयोग्य है। चंद लोगों की सनक के कारण पूरे देश की लोकशाही, स्वाभिमान व संस्कृति को गुलाम नहीं बनाना एक अक्षम्य अपराध है।  भारतीय भाषाओं को निरादर करके बलात भारत में अंग्रेजी में शासन प्रशासन चलाना सबसे बडी गद्दारी है। सबसे हैरानी है कि अंग्रेजी गुलामी में भारतीय हुक्मरान, बुद्धिजीवी व नौकरशाही ही नहीं आम प्रबुद्ध लोग इतने अंधे बने हुए है कि उनको विदेशी शासकों द्वारा बार बार इनको अपनी भाषाओं में बोलने का करारा तमाचा खा कर भी इनके गुलामी का खुमार दूर नहीं होता। आज शर्मनाक स्थिति यह है कि भारत में भारतीय भाषाओं के लिए संघर्ष करने वाले व अंग्रेजी की गुलामी पर प्रश्न उठाने वालों को विकास के मार्ग में सबसे बडा अवरोधक व संकीर्ण मान कर उपेक्षा की जा रही है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर यह देश कब तक जार्ज पंचम व उसके वंशजों की जय हे जय हे कहता रहेगा? कब तक स्वयंभू गुलाम बनता रहेगा ? जरूरत है आज देश की आजादी को अंग्रेजी भाषा की गुलामी की दासता से मुक्त कराने की। जिससे भारत में सच्चे अर्थो में लोकशाही का उदय हो सके और भारतीय संस्कृति  पूरे विश्व को अपने ज्ञान व संस्कारों से आलौकित कर एक गूगा राष्ट्र अपनी भाषा में विश्व से संवाद कर सच्ची लोकशाही में जी सके।

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