आंदोलनकारियों से मुख्यमंत्री की हुई सकारात्मक वार्ता पर विरोध क्यों?


मैं हैरान हॅू कि 4 जून को 12 साल बाद किसी भी उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री ने उत्तराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन के आंदोलनकारी संगठनों से वार्ता करने करने की पहल क्या की कि कुछ लोगों ने ऐसा विरोध किया कि जेसे उत्तराखण्ड के हितों पर कोई डाका डाल दिया गया हों। क्या मुख्यमंत्री से मिल कर उत्तराखण्ड जनांकांक्षाओं के बारे में बात करना गलत काम है? राज्य गठन के लिए क्या जिन लोगों ने राज्य गठन के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर दिया था उनसे वार्ता करना कोई अपराध है।
क्या मुजफरनगर काण्ड-94 के गुनाहगारों को सजा अभी तक न दिये जाने के लिए राज्य गठन की अब तक की सरकारों को धिक्कारते हुए मुख्यमंत्री को इस दिशा में काम करने की बात करना, उत्तराखण्ड के खिलाफ काम है? क्या विरोध करने वाले बतायें कि मुख्यमंत्री से गैरसैंण में राजधानी बनाने की पुरजोर मांग करना गलत है? क्या उत्तराखण्ड गठन के बाद तिवारी व खण्डूडी सरकारों द्वारा रखे गये शर्मनाक मौन के कारण प्रदेश में थोपे गये उत्तराखण्ड विरोधी जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई परिसीमन पर बात करना कोई गुनाह है? क्या उत्तराखण्ड में हिमाचल के मुख्यमंत्री के तरह सुशासन व समृद्ध उत्तराखण्ड की बात कहना गुनाह है? क्या उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री से प्रदेश प्रदेश की जनांकांक्षाओं को पूरा करने को ही उत्तराखण्ड राज्य गठन जनांदोलनकारियों का सबसे बड़ा सम्मान बताना कोई गुनाह है? फिर बिना जाने व बार बार मेरे द्वारा लिखे जाने के बाबजूद केवल विरोध करना कहां प्रदेश व समाज के हित में है यह मेरी समझ से परे की बात है?
लगता है कुछ मित्रों को इसकी जानकारी नहीं कि राज्य गठन के तमाम आंदोलनकारियों को सदा हमने प्रमुखता से अपने समाचार पत्र व गोष्टियों में सदैव देता रहा। शहीदों व समर्पित आंदोलनकारियों को नमन् करते हुए कोई भी धरना, प्रर्दशन, सहित किसी गोष्ठियों का हम सदैव शुभारंभ करते है। किसी को इसकी जानकारी नहीं है तो उनकी अज्ञानता का दोष भी हमी पर क्यांे?
जहां तक उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा पर प्रश्न उठाने वालों को एक ही बात कहना चाहता हॅू कि पहले कभी निर्मल मन से इसको जानने की चेष्ठा करेंगे तो तभी पता चलेगा? जंतर मंतर को मात्र स्थान मानने वालों को शायद इसका भान होना चाहिए कि यह देश की संसद की चैखट है। भारतीय जनमानस को अपने विरोध प्रकट करने का सर्वोच्च स्थल है। यहां पर देश विदेश के तमाम लोग, राजनेता, बुद्धिजीवि व आंदोलनकारी तब आते हैं जब वे देश के अपने क्षेत्र, जिला, प्रदेश व केन्द्र सरकार तथा अन्य तमाम विकल्पों से निराश हो जाते है। जब उनकी कहीं नहीं सुनी जाती या देश के हुक्मरानों व जनता का विशेष ध्यान आकृष्ठ करने के लिए देश भर के लोग राष्ट्रीय धरनास्थल जंतर मंतर पर आते है। यहां पर न केवल अन्ना हजारे, अरविन्द केजरीवाल व बाबा रामदेव ही नहीं कश्मीर के हुरिर्यत नेता लोन से लेकर देश के तमाम अग्रणी नेता आते है। यह देश के आम नागरिकों के लिए अपनी आवाज उठाने का सर्वोच्च मंच है। जंतर मंतर का इतिहास ही वर्तमान राजनीति का कुरूक्षेत्र का मैदान है। यहीं कभी मायावती तो कभी काशी राम, कभी ममता बनर्जी तो कभी लालू, कभी टिकैत तो कभी भाजपाइ्र, कांग्रसेी ही नहीं देश के तमाम राष्ट्रीय व क्षेत्रिय दलों के प्रमुख आते है। ऐसे राष्ट्रीय महत्व के स्थान पर उत्तराखण्ड जनांदोलन की गूंज मजबूती से एक दो दिन महिने नहीं पूरे 6 साल तक सफलता हासिल करने तक कितने धूप, वर्षा व तमाम विकट समस्याओं व विरोधों को झेलने के बाबजूद उठाने वालों को उत्साह बढाने के बजाय उनका विरोध करना कहां जायज है। हालांकि जंतर मंतर के मंच से हमने यहां पर आ रहे शराबियों, पदलोलुपुओं, उत्तराखण्ड विरोधी दलों व दिशाहीन नेताओं को खदेडा भी। हो सकता है उनके समर्थक मुझसे व मेरे संगठन के इस प्रवृति से नाराज होगे। उन सबका सकारात्मक विरोध सदैव स्वागत योग्य रहा। परन्तु संकीर्ण मानसिकता के साथ केवल विरोध करने वालों का यहां कोई स्थान नहीं।
6 साल तक निंरंतर उत्तराखण्ड राज्य गठन में हमने संसद की चैखट पर ऐतिहासिक सफल धरना प्रदर्शन करने का कीर्तिमान बनाया तो हमारे कुछ मित्रों को यह आपती है कि यह आंदोलन पुराना है। हमने सदा अपने वरिष्ठ आंदोलनकारियों के योगदान को नमन् किया। परन्तु एक बात वे भूल गये कि 1994 के प्रचण्ड जनांदोलन ने न केवल उत्तराखण्ड राज्य गठन आंदोलन की तकदीर बदल डाली अपितु देश के  हुक्मरानों को मजबूर कर दिया राज्य गठन के लिए। वहीं छत्तीसगढ़ व झारखण्ड का भाग्य की खोल दिया।
जो लोग 1994 के व्यापक जनांदोलन को नकार रहे हैं या जंतर मंतर के आंदोलन में भागेदारी को कम कर आंक रहे है। उनको तेलांगना के आधा शताब्दी के व्यापक जनांदोलन व एक हजार से अधिक लोगों की शहादत के इतिहास के बाबजूद वर्तमान स्थिति पर नजर दोड़ानी चाहिए।
विरोध करने तक तो स्वीकार किया जा सकता। क्योंकि यह सामान्य कमजोर व विवेकहीन मानवीय प्रवृति है। मै तमाम प्रकार की स्वस्थ आलोचनाओं का सदैव स्वागत करता हॅू। परन्तु जिस प्रकार का विलाप इस बैठक के बाद चंद लोग फेस बुक पर करते देखे गये उससे लगता है कि वे लोग जानबुझ कर दुराग्रहों से ग्रसित हो कर विरोध कर रहे है। कार्याे की सकारात्मक समीक्षा होनी चाहिए परन्तु केवल अपने अहं, संकीर्णता व अज्ञमता को छुपाने के लिए किसी के भले कामों को नकारने की प्रवृति न तो समाज के हित में है व नहीं खुद आलोचना करने वालों के हित में। यह बीमारी अधिकांश लोगों में होती है कि उनको जो लोग अप्रिय लगते हैं या जो काम वे खुद नहीं कर पाये उसको किसी दूसरे द्वारा किये जाने पर स्वस्थ व खुले हृदय से उसको स्वीकार करने के बजाय उसको नक्कारने व लांछित करने की धृष्ठता करते है।
 मै समझ नहीं पाया कि विरोध कोई कांग्रेसी, भाजपाई या कोई अन्य दलों से जुडे लोग करते तो समझ में आती है कि इनका विरोध दलगत मनोवृति कके कारण है। परन्तु विरोध वे लोग कर रहे हैं जो अपने आप को उत्तराखण्ड के हितैषी होने की बात कहते है। हाॅं एक ऐसा बडा वर्ग है जो मेरे द्वारा उत्तराखण्ड में प्रदेश में भाजपा व कांग्रेस के दिल्ली के आकाओं द्वारा उत्तराखण्ड में भ्रष्टाचार, क्षेत्रवाद व जातिवाद पर निरंतर एक डेढ़ दशक से किये गये प्रचण्ड प्रहारों से पीड़ित है । इस लिए मेरे हर काम का न केवल विरोध करते हैं अपितु दुराग्रह से मेरे हितों पर कुठाराघात करने की कुचैष्ठा करते है। मे इन नादानों की धृष्ठता पर उन पर दया के अलावा अगर कुछ करता हॅू तो वह हंस देता हॅू। इन नादानों को नहीं मालुम कि सत का विरोध करने से वे मेरा नहीं अपितु खुद अपनी ही जड़ो में मट्ठा डालते है।
मेने खुद इस बैठक में मुख्यमंत्री के सम्मुख दो टूक शब्दों में कहा कि ‘ जिन जनांकाक्षाओं के लिए उत्तराखण्ड राज्य गठन का जनांदोलन किया गया था उनको साकार करना ही राज्य गठन आंदोलनकारियों का सबसे बडा व असली सम्मान है। मैने उत्तराखण्ड राज्य गठन के 12 सालों बाद मुजफरनगर काण्ड के अभियुक्तों को सजा देने की दिशा में एक भी कदम न उठाने के लिए तमाम सरकारों को धिक्कारा वहीं गैरसैंण राजधानी बनाने की पुरजोर मांग की। इसी के साथ प्रदेश के वर्तमान व भविष्य को जनसंख्या पर आधारित विधानसभा परिसीमन को लागू कराने के लिए उतराखण्ड के साथ विश्वासघात बताया। मेने उत्तराखण्ड राज्य गठन आंदोलन के प्रमुख संगठन ‘उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा’ का इस आशय का एक चार पेज का ज्ञापन भी मुख्यमंत्री को दिया। इसी प्रकार की दो टूक संबोधन उत्तराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन के अन्य प्रमुख संगठन उत्तराखण्ड जनमोर्चा व उत्तराखण्ड राज्य लोकमंच व उत्तराखण्ड महासभा ने भी कहा।
अगर मुख्यमंत्री राज्य आंदोलनकारियों से मिलना चाहता है तो क्या हमे राज्यहित की बात उनसे नही करनी चाहिए थी? हमने राज्य गठन के लिए जंतर मंतर पर ऐतिहासिक आंदोलन किया तो क्या इसमें हमारी गलती है? क्या हम जो 6 साल तक निंरतर राज्य गठन के लिए सैकडों प्रदर्शन, गोष्टियां, आदि आंदोनलन चलाना गुनाह है? क्या हमें इस जनांदोलन को शराबी, दलों के दलालों व दिशाहीन लोगों के लिए छोड़ कर पलायन करना था। हमने पलायन नहीं किया? अपितु शराबियों व संकीर्ण दलगत लोगों को यहां पर अपनी संर्कीण मनोवृति से जनभावनाओं  से खिलवाड नहीं करने दिया। यही नहीं यहां से हमने भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा व सिद्धांतविहिन लोगों को खदेड़ने का काम किया। क्या यह अपराध है? हाॅं उन लोगों के समर्थक जरूर हमारा विरोध अभी तक करते है? हाॅ राज्य गठन के बाद मेने जातिवादी, भ्रष्टाचारी व व्यभिचारी नेताओं का भारी विरोध किया हो सकता है उनका या उनके समर्थकों को भारी नाराजगी मुझे समय समय पर देखने को मिलती है। बिना वजह से  विरोध करना क्या प्रदर्शित करता है। गलती पर विरोध स्वीकार परन्तु सही काम पर विरोध करने वाले कोन है?
राज्य गठन के लिए व्यापक जन जागरूकता के लिए 1993 में जब से मुझे इस दिशा में गहरायी से ज्ञान हुआ मैने जून 1993 से प्यारा उत्तराखण्ड समाचार पत्र प्रकाशित कर दिल्ली सहित प्रदेश के अधिकांश विकासखण्डों, जिला पुस्तकालयों, इंटर कालेजों, नगर पुस्तकालयों व प्रबुद्ध जनों तक यह अखबार 1993 से आज तक निशुल्क प्रेषित किया। यही नहीं दिल्ली में जब उत्तराण्ड की बात चंद लोग करते थे उस समय यहां के युवाओं को संगठित करके यहां दिल्ली में उत्तराखण्ड जन मोर्चा संगठन बनाने का सफल प्रयाश किया।
वर्तमान व किसी के कार्यो को नकार कर मात्र इतिहास पर आंसू बहाने वालों से मुझे एक ही बात करनी है कि इतिहास को आंख बंद कर सच नहीं माना जा सकता। अधिकांश इतिहासकार सच्चाई को नहीं अपना नजरिया लिखते है। दिशाहीन व संकीर्ण स्वार्थ में डूबे लोगों द्वारा लिखा गया इतिहास न केवल सच्चाई को दफन करने की कोशिश की जाती है अपितु भविष्य की आंखों में धूल झोंकने का नापाक पाप किया जाता है। यह कितना भयानक व आत्मघाति होता है। यह भारत के इतिहास को देख कर सहज हीी अंदाजा लगाया जा सकता है। जो इतिहासकार अंग्रेजों व विदेशी सोच की दासता के कारण भारतीयों में आर्य व द्रविण का झगडा दिखाते, आर्य को विदेशी आक्रांता बताते, भगवान राम व भारतीय संस्कृति के आराध्यों को काल्पनिक पात्र बताते। इस देश को जंगली व लूटेरों तथा संपेरों का देश बताते। जब देश का इतिहास ही अभी अंग्रेजों  व भारतीय संस्कृति से धृणा व हेय समझने वालों ने विकृत किया हुआ है। हम इसी विकृत इतिहास को सच्चा मान कर करोड़ों नौनिहालों को देश व समाज के बारे में झूट सिखा रहे हैं व थोप रहे है। इतिहास समर्थवान के नजरों से लिखा व लिखाया जाता रहा। इतिहास कैसे होगा यह इतिहास लिखने वाले के खुद के चरित्र, उसकी सोच व उसकी प्राथमिकता की सोच इतिहास पर रहती है। 

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