संसद की  चैखट -जंतर मंतर पर चल रहे भाषा आंदोलन में सम्मलित हुए महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी


पहली मई को मजदूर दिवस के नाम पर पूरे विश्व में मजदूर, धरना प्रदर्शन व गोष्ठियों को आयोजन हो रहा था वहीं विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की सर्वोच्च संस्था संसद की चैखट पर महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी, आजादी के 65 साल बाद भी देश में बलात थोपी गयी अंग्रेजी भाषा की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए चल रहे ‘भारतीय भाषा आंदोलन के 21 अप्रैल से चल रहे धरने में सम्मलित हुए। नाम व प्रसिद्धि से दूर रहने वाले कानू गांधी के धरने में होने की भनक न पुलिस प्रशासन को लगी व नहीं अन्य लोगों को।
भाषा आंदोलन के धरने पर महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी का स्वागत, भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान, महासचिव देवसिंह रावत व समाजसेवी श्याम जी भट्ट, सुलतान कुरैशी ने किया।  परन्तु उनकी पहचान अन्य आंदोलनकारियों से उजागर किये की गयी। इस दोरान भाषा आंदोलन के बारे में जानकारी ले रहे एक पत्रकार को भाषा आंदोलनकारी पुष्पेन्द्र चैहान ने उनका नाम बताना चाहा तो उन्होंने पत्रकार से उनका कोई उल्लेख न करने विनम्र निवेदन किया। वह भी बिना अपनी पहचान बताये हुए वे करीब डेढ़ घण्टे से अधिक भारतीय भाषा आंदोलन में सम्मलित रहे। इस दौरान उनसे चर्चा में उनके पूर्व परिचित खादी बोर्ड के डायरेक्टर रहे समाजसेवी बी आर चैहान, फरिदाबाद से आये समाजसेवी प्रदीप नागर, भोलानाथ यादव भी विश्व इतिहास के महानायक महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी से विभिन्न विषयों पर चर्चा करते रहे। भाषा आंदोलन के महासचिव देवसिंह रावत ने कहा कि भाषा आंदोलन के इतिहास में यह महत्वपूर्ण ऐतिहासिक व गौरवशाली क्षण रहे जब विश्व के महानायक महात्मा गांधी के साथ वर्षो तक रहने वाले उनके पोते ने भाषा आंदोलन में सम्मलित हुए। इससे पहले देश के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जेल सिंह न केवल इस आंदोलन में सम्मलित हुए थे अपितु वे इस आंदोलन के लिए जेल जाने के लिए भी तैयार थे। हालांकि ज्ञानी जी के साथ अटल बिहारी वाजपेयी, वीपीसिंह, देवीलाल, चतुरानन्द मिश्र, आडवाणी, पासवान सहित देश के चार दर्जन से अधिक नेता संघ लोक सेवा आयोग पर चले आंदोलन में सम्मलित हुए थे। अब भाषा आंदोलन ने 21 अपे्रल से संसद की चैखट जंतर मंतर पर जब से संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता को हटा कर भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाने तथा सर्वोच्च न्यायालय -उच्च न्यायालय में भारतीय भाषाओं में न्याय देने की मांग को लेकर आंदोलन चलाया उसमें 10 दिन बाद ही महात्मा गांधी के पोते कानू गांधी का सम्मलित होना भारतीय भाषा आंदोलन के इस संघर्ष को महत्वपूर्ण ऊर्जा प्रदान करेगा।
महात्मा गांधी के चार बेटे हरीलाल, मणिलाल, रामदास व देवदास। इस दोरान वे पूरे समय महात्मा गांधी के बारे में अपने अनुभव सुनाते रहे। भारतीय संस्कृति में गहरी आस्था रखने वाले 1928 में जन्मे कानू गांधी, महात्मा गांधी के तीसरे बेटे रामदास के बेटे थे। उनकी माता का नाम निर्मल था। कानू जब तीन साल के थे तभी से उनको महात्मा गांधी ने अपने साथ रखा था। वे एकमात्र पोते थे जिनको गांधी जी ने अपनी देखरेख में अपने साथ रखा। महात्मा गांधी के साथ बचपन से लेकर डेढ़ दशक तक रहते हुए उन्होंने जितनी करीबी से महात्मा गांधी को देखा शायद उनके परिवार के उनकी दादी कस्तुरबा के अलावा किसी अन्य को उनके जनांदोलन का अनुभव होगा। हालांकि उनके पिता रामदास भी अपने पिता महात्मा गांधी के साथ आंदोलन में भाग लेते थे। परन्तु जो शौभाग्य कानू गांधी को मिला वह परिवार के अन्य किसी सदस्य को नहीं मिला। कानू गांधी अपनी पत्नी आभा गांधी के साथ भी गांधी के साथ रहे। इस दौरान केवल कानू गांधी ही ऐसे एकमात्र व्यक्ति थे जिनको गांधी जी की हर तस्वीर खिंचने की स्वीकृति गांधी जी ने दे रखी थी।
आजादी के 65 साल बाद भी जहां देश में बलात अंग्रेजी भाषा की गुलामी देश पर थोपी जा रही, वहीं इस घोर पतन पर देश के  हुक्मरान ही नहीं, तमाम राजनैतिक दलों के साथ-साथ यहां की प्रबुद्ध जनमानस ने भी शर्मनाक मौन साधा है। इससे देश अपनी संस्कृति व भाषाओं से निरंतर कट रहा है और देश का आम जनमानस विदेशी भाषा को बलात ढोने को मजबूर होने के बाबजूद पूरी तरह से शिक्षा, रोजगार व सम्मान से वंचित हो गया है। ऐसे समय में देश के स्वाभिमान व लोकशाही की मजबूती के लिए भारतीय भाषाओं को देश सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए 1988 से भारतीय भाषा आंदोलन छेडे हुए है। 1988 से संघ लोक सेवा आयोग के मुख्यालय पर संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षाओं में अंग्रेजी की अनिवार्यता को समाप्त करने व भारतीय भाषाओं के माध्यम से परीक्षा देने की मांग के लिए 14 साल का ऐतिहासिक आंदोलन चलाया गया। पुष्पेन्द्र चैहान व स्व. राजकरण सिंह के नेतृत्व में चले इस आंदोलन को वाजपेयी सरकार द्वारा उजाडे जाने के बाद भी आंदोलनकारी इस मांग को लेकर निरंतर आंदोलनरत रहे। जब सरकार ने इस मांग के प्रति उदासीन रवैया रखा तो मजबूर हो कर 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट, राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर पर भाषा आंदोलन ने अपना आंदोलन और तेज कर दिया। तभी से इस आंदोलन को अपना समर्थन देने के लिए निरंतर देश के समाजसेवी व आंदोलनकारी पंहुच रहे है।

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