पदलोलुपु की नहीं,  उमा भारती जैसी जनहितों के लिए संघर्ष करने वाली नेता की जरूरत


जनहितों पर आवाज उठाने को क्यों सांप सुंघ जाता है उत्तराखण्डी नेताओं को 


बृहस्पतिवार 16 मई को जिस समय उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा सहित उत्तराखण्ड के तमाम राजनेता दिल्ली व उत्तराखण्ड में प्रदेश की बदहाली व दुर्दशा से बेपरवाह हो कर अपने निहित स्वार्थो में डूबकर आराम फरमा रहे थे उस समय भाजपा की तेजतरार नेत्री उमा भारती, अपने दल के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मिल कर उत्तराखण्ड की जनआस्थाओं व हक हकूकों के संघर्षों की प्रतीक शिला रूपि ‘धारी देवी मंदिर’ को श्रीनगर के समीप अलकनन्दा नदी में बन रहे बांध में डुबोने को उतारू प्रदेश सरकार व बांध निर्माण कम्पनी से बचाने की गुहार लगा रहे थे।
उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री बहुगुणा सहित अधिकांश कांग्रेसी दिग्गज नेताओं ने अपनी केन्द्रीय सरकार पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर इस पर रोक लगाने के लिए जारी किये गये अपने ही आदेश को वापस ले लिया है। उल्लेखनीय है कि केन्न्द्रीय पर्यावरण व वन मंत्रालय द्वारा उत्तराखण्ड में बांध के लिए उत्तराखण्ड की जनआस्था व हक हकूकों के संघर्षों की प्रतीक शिला रूपि धारी देवी मंदिर को डुबोने पर रोक लगाने वाले अपने ही आदेश को 10 मई को सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति  के एस राधाकृष्णन व दीपक मिश्र की खण्डपीठ के समक्ष वापस लेने से इस मंदिर का बाहरी ढांचा ऊंचे स्थान में प्रतिस्थापित करने को उतारू बांध निर्माण कम्पनी की राह आसान हो गयी।
उमा भारती भले ही उत्तराखण्ड मूल की न होते हुए भी उनका सदैव उत्तराखण्ड से गहरा जुडाव ही नहीं अपितु वह हमेशा उत्तराखण्ड के हक हकूकों की रक्षा के लिए प्रदेश के तमाम भाजपा व कांग्रेस के नेताओं से अधिक संघर्ष करती नजर आती है। चाहे उत्तराखण्ड राज्य गठन जनांदोलन हो या मुजफरनगर काण्ड के दोषियों को सजा देने की मांग करने के लिए वह हमेशा संसद ही नहीं सड़क सभी जगह संघर्ष करती रही। जब भी उन पर राजनैतिक संकट आया हो या वह राजनीति के अच्छे दिनों में जब मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री भी रही हो उन्हें उत्तराखण्ड ही भाया। जहां उत्तराखण्ड के नेताओं को विदेश या दिल्ली में सकुन मिलता है वहीं उमा भारती को भगवान शिव के चरणों में व हिमालय की गोद में बसे उत्तराखण्ड में सकुन मिलता है। केदारनाथ धाम हो या मदमहेश्वर जैसे दिव्य धामों में उमा भारती को सकुन मिलता है। भले उत्तराखण्ड नाम के प्रति उनका दुराग्रह व उत्तरांचल के प्रति उनका स्नेह को दलीय मोह व भाजपा के प्रांतीय नेताओं की अज्ञानता के कारण रहा हो। पर उमा भारती तमाम अपमान व विपरित परिस्थितियों की परवाह न करते हुए सदा भारतीय संस्कृति व हक हकूकों की रक्षा के लिए संघर्षरत रही। भाजपा का दुर्भाग्य रहा कि उसने अपनी तेजतरार व भारतीय संस्कृति की इस जुझारू ध्वजवाहक को जिसने हुगली के मैदान में भारतीय ध्वज तिरंगा को फहराने का ऐतिहासिक कार्य किया था, उसका समर्थन देने के बजाय उसको राजनैतिक रूप से हाशिये में धकेलने का आत्मघाती काम किया। देश व प्रदेश के हक हकूकों के लिए कैसे संघर्ष किया जाता है इसकी सीख भाजपा सहित तमाम नेताओं को उमा भारती से लेनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है देश में भारतीय संस्कृति के स्वयं भू ध्वज वाहक होने का दंभ भरने वाली भाजपा में उमा भारती जैसे समर्पित नेताओं को हाशिये में डाल कर सुषमा जैसी नेताओं को अग्रणी पंक्ति की नेत्री बनाने जैसा कृत्य करती है।
यहां पर बात उत्तराखण्ड की हो रही है तो उत्तराखण्ड के नेताओं में उमा भारती जैसा समर्पण तो रहा दूर उनमें भाजपा के ही तेज तरार व कई विवादों में घिरे रहने वाले सांसद तरूण विजय की तरह भी प्रदेश के जनभावनाओं को स्वर देने की कुब्बत नहीं है। तरूण विजय भले ही उत्तराखण्ड कोटे से भाजपा के राज्यसभा सांसद हैं पर उन्होंने उत्तराखण्ड मूल के सभी सांसदों चाहे वे कांग्रेस से हों या भाजपा से सबको अपने सामने 19 ही साबित किया है। जिस प्रखरता से वे नन्दा राजजात के मामले में इसे प्रखरता से उठा रहे हैं उसके समक्ष उत्तराखण्ड के नेताओं की इस मामले में उदासीनता शर्मसार ही करती है। यही नहीं कुछ साल पहले उन्होंने उत्तराखण्ड के सबसे पोष्टिक परन्तु उपेक्षित खाद्यान्न ‘कोदा यानी मंडूवा’ को पहचान देने के लिए मंडूवा महोत्सव भी मना कर अपनी जमीनी पकड़ व बद्धि कौशल का प्रमाण दिया। जो अभी तक 12 साल के शासन में किसी भी उत्तराखण्डी मुख्यमंत्री तिवारी, खण्डूडी, निशंक, बहुगुणा में ही नहीं किसी सांसद व मंत्री में दूर दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। काश उत्तराखण्ड में भी ऐसे नेता होते जिनको इसकी माटी से गहरा लगाव उमा भारती की तरह होता या उसके हितों की रक्षा के लिए संघर्ष करने की कुब्बत होती । परन्तु  इन स्वार्थ में अंधों के आंगे यह बीन बजाने के समान है। आज अगर उत्तराखण्ड के नेताओं में जरा सी भी कुब्बत होती तो प्रदेश में जनसंख्या पर आधारित परिसीमन नहीं थोपा जाता, प्रदेश के सम्मान को रौंदने वाले मुजफरनगर काण्ड-94 आदि के गुनाहगारों को सजा मिलती, प्रदेश की स्थाई राजधानी गैरसैंण बन जाती, प्रदेश में घुसपेटियों के बजाय मूल निवासियों के हक हकूकों के लिए काम किया जाता व प्रदेश में भू-जल-जमीन, शराब व बांध माफियाओं का शिकंजा इस तरह नहीं कसता।




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