दिल्ली नगर निगम चुनाव में उत्तराखण्डियों ने भी कसी कमर
दिल्ली नगर निगम चुनाव में उत्तराखण्डियों ने भी कसी कमर
नई दिल्ली(प्याउ)। इसी साल होने वाले दिल्ली नगर निगम के चुनाव में दिल्ली में रहने वाले 30 लाख आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाला बहुसंख्यक उत्तराखण्डी समाज भी दिल्ली नगर निगम के चुनाव में ताल ठोकेगे। दिल्ली प्रदेश की राजनीति में यहां पर बहुसंख्यक समाज व यहां के स्थापित समाज को एक प्रकार से राजनीति में ही नहीं शासन प्रशासन से दूर रखा गया हे। इसका अहसास इस बात से ही हो जाता है कि यहां पर दिल्ली सरकार में आसीन कांग्रेस सरकार में शीला दीक्षित के मत्रीण्डल में उनके अपने समाज के अलावा दिल्ली के अन्य समाज का प्रतिनिधित्व ना के बराबर है। ऐसा ही कभी भाजपा के शासनकाल में होता था। दिल्ली में दो दशकों से यहां की राजनीति में अन्य समाजों में जबसे खुद की भागेदारी की भावना जागृत हुई उसके बाद दिल्ली का राजनैतिक समीकरण बदल गया है। क्या कारण है कि 1.50 करोड़ जनसंख्या वाली दिल्ली में 30 लाख जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले उत्तराखण्डी समाज को हाशिये में धकेला जाता है। इसके लिए जहां यहां पर दिल्ली देहात, उत्तराखण्डी, पूर्वांचली लोगों की उपेक्षा का कारण साफ है कि यहां के आर्थिक सम्राज्य पर इन समाज का बर्चस्व ना के बरा बर रहा। अब जब से लोगों में चेतना जागृत हुई, तब से इन समाजों को हिस्सेदारी देने देने का झांसा अधिकांश दल कर रहे हैं। जहां तक उत्तराखण्डी समाज में अब नैतृत्व उभर रहा है। जहां भाजपा में प्रथम विधायक व जिलाध्यक्ष रहे मुरारी सिंह पंवार, तीन बार से दिल्ली में निरंतर विधायक रहने वाले मोहनसिंह बिष्ट, दिल्ली प्रदेश के सचिव वीरेन्द्र जुयाल, पार्षद जगदीश मंमगाई, लक्ष्मी धस्माना, ऊषा शास्त्री व पार्षद हरीश अवस्थी जेसे स्थापित हो चूके नेता हैं वहीं कांग्रेस में दिल्ली में पहली बार कांग्रेस में जिलाध्यक्ष बने उत्तराखण्डी नेता लक्ष्मण सिंह रावत, दो बार विधायक की टिकट ले चूके दीवान सिंह नयाल, पार्षद मुकुंदीराम भट्ट, दिल्ली प्रदेश पीसीसी के सदस्य एम एस रावत, दिल्ली प्रदेश के सचिव हरिपाल रावत, व प्रदेश महिला कांग्रेसी उमा भट्ट जैसे नाम हैं।
इस सप्ताह मुझे मयूर बिहार से कांग्रेसी नेता रावत व कालका जी से बाली मनराल ने कांग्रेसी टिकट की दावेदारी करने का ऐलान किया। रविवार 19 फरवरी को रात को कालका जी से दूरभाष से वहां पर रहने वाले अग्रणी समाजसेवी सुरेश काला जी ने कहा कि कालका जी में बहुसंख्यक उत्तराखण्डी समाज भी इस साल होने वाले नगर निगम के चुनाव में मजबूती से दावेदारी करेगा। कालका जी क्षेत्र में कई सालों से गढ़ कुमाउ बदरीकेदार समिति के बैनरतले यहां का समाज एकजूट है। यहां पर राज्य आंदोलन के अग्रणी आंदोलनकारी रामप्रसाद पोखरियाल व बाली मनराल समाज की इस भावना का प्रतिनिधित्व करने के लिए तैयार है। दोनों में से जिसको भी कांग्रेस अपना प्रत्याशी बनायेगी उसके समर्थन में पूरा समाज लामबंद हो जायेगा। इसी ही तेयारी इन दिनो भाजपा के नेता भी कर रहे है। इस दिशा में भाजपा व कांग्रेस में समाज के कई उभरते हुए लोग जुड़े हुए है जो इस समय पार्षद की दावेदारी कर सकते है। भाजपा में जहां मयूर बिहार क्षेत्र में डा विनोद बछेती तो । कांग्रेस से नई दिल्ली क्षेत्र से बृजमोहन उपे्रेती जैसे युवा भी चुनावीं दंगल में उतर सकते हैं।
हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में कांग्रेस व भाजपा ने दिल्ली की राजनीति में उपेक्षित पड़े इस समाज को एक प्रकार से नजरांदाज किया हुआ है। भाजपा ने हालांकि टिकट देने में कांग्रेस को गत चुनावों की तरह करारी मात दी है। वहीं दिल्ली में पहला उत्तराखण्डी विधायक भी मुरारी सिंह पंवार भी भाजपा से ही रहे। वहीं दिल्ली में वर्तमान तीन कार्यकाल से करावल नगर विधानसभा सीट से निरंतर भाजपा के विधायक के रूप में उत्तराखण्डी समाज का एकलोता वर्तमान विधायक मोहनसिंह बिष्ट है। वहीं पार्षद के रूप में दिल्ली में जहां खुशहालमणि घिल्डियाल ही सबसे लम्बे समय तक उत्तराखण्डियों का प्रतिनिधित्व करते रहे। आज भाजपा में आधा दर्जन के करीब निगम पार्षद हैं इनमें जगदीश ममगांई, हरीश अवस्थी,लक्ष्मी धस्माना, ऊषा शास्त्री सतेश्वरी जोशी, नीमा भगत, कांग्रेस से केवल मुकुन्दी राम भट्ट, हालांकि दिल्ली की राजनीति में सबसे अहम् पद पर कांग्रेस वरिष्ठ नेता व दिल्ली के शिक्षा मंत्री के रूप में प्रतिष्ठित रहे साफ छवि के नेता कुलानन्द भारतीय आसीन रहे। जो सम्मान दिल्ली की राजनीति में कुलानन्द भारतीय को सभी राजनेतिक दलों व समग्र उत्तराखण्डी समाज में मिला वह सम्मान आज तक कोई राजनेता हासिल नहीं कर पाया।
वेसे दिल्ली में उत्तराखण्डी समाज को जो मजबूती व अपनत्व दिल्ली नगर निगम के सर्वशक्तिमान कमीश्नर बहादूर राम टम्टा ने दी, वह किसी दूसरे नेता व नौकरशाह को आज तक हासिल नहीं हुई। बहादूर राम टम्टा ने न केवल कमीश्नर रहते हुए उत्तराखण्डी लोगों को संरक्षण दिया अपितु सेवानिवृत के बाद पृथक उत्तराखण्ड राज्य गठन व इसके विकास के लिए समाज का नेतृत्व भी किया। हालांकि दिल्ली पुलिस में कमीशनर हीरा सिंह बिष्ट व शिक्षा विभाग में बीडी भट्ट जी के योगदान को आज भी उत्तराखण्डी समाज मुक्त कण्ठों से सराहना करते है। इसके साथ दिल्ली में उत्तराखण्डी समाज के कार्यरत लोगों में शिक्षा के प्रसार के लिए आचार्य जौधसिंह रावत तथा घरेलू कर्मचारियों के अधिकार के लिए संघर्ष करने के लिए को लोग आज भी याद करते है।
सबसे हैरानी यह है कि दिल्ली में उत्तराखण्डी समाज के कई राष्ट्रीय नेता देश की राजनीति में विराजमान है परन्तु जो उत्तराखण्डी समाज को प्रतिनिधित्व दिल्ली प्रदेश की राजनीति में भाजपा व कांग्रेस में मिलना चाहिए था वह अभी तक नहीं मिली। इस बारे में लोगों में कई प्रकार की भ्रांतिया हैं कुछ लोगों का मानना है कि दिल्ली में उत्तराखण्ड समाज के नेताओं की अपने समग्र समाज के हित में न तो सोच समझ ही है व नहीं उनका दिल्ली की राजनीति में पकड़ ही है। वहीं दूसरी तरफ कुछ लोगों का मानना है कि दिल्ली में इसीलिए उत्तराखण्डी नेता समाज के लोगों को इसलिए मजबूत नहीं करना चाहते हैं कि इससे उनको अपने अस्तित्व पर खतरा नजर आता। इसके अलावा दिल्ली के मजबूत उत्तराखण्डी नेताओं का यहां से उत्तराखण्ड पलायन जैसे अदूरदर्शी सोच भी काफी हद तक जिम्मेदार मानी जा सकती। उत्तराखण्ड बनने पर दिल्ली में राजनीति करने वाले मजबूत उत्तराखण्डी नेताओं जो यहां दिल्ली की राजनीति में भी अपने दिलों में जाने पहचाने ही नहीं स्थापित नाम रहे उनका उत्तराखण्ड की राजनीति में स्थापित होने का मोह भी दिल्ली में उत्तराखण्डी समाज में वर्तमान में नेतृत्व शून्यता का महत्वपूर्ण कारण रहा है। खासकर दशकों तक भाजपा के वरिष्ठ नेता व पार्षद रहे खुशहाल मणि घिल्डियाल, राज रावत, तो कांग्रेस के मदन बिष्ट व धीरेन्द्र प्रताप नामों के अलावा नया नाम भाजपा की दीप्ती रावत का भी नाम है, जो अभी तक प्रदेश में स्थापित नहीं हो पायी। हालांकि इस दिशा में कोशिश भाजपा नेता उदय शर्मा, पूरण चंद नैनवाल ने भी किया। पूरण डंगवाल भी अभी तक उक्रांद, कांग्रेस होते हुए बसपा के सफर के बाबजूद सफल नहीं हुए। अगर ये लोग जो दिल्ली की राजनीति में अच्छी दखल रखते हैं दिल्ली में राजनीति जमीन पर साकार होने की कोशिश करते तो लगता है कि दिल्ली में ये यहां के अन्य नेताओं की अपेक्षा अधिक आसानी से स्थापित हो सकते थे। परन्तु सफलता केवल किशोर उपाध्याय व सुरेन्द्र जीना को विधायक बन कर प्रदेश की राजनीति में स्थापित होने की मिली। इसके अलावा अनैक नाम है। उसके अलावा हालांकि भाजपा ने इस मामले में कांग्रेस को काफी पीछे छोड़ दिया हे। इस सबसे हट कर दिल्ली की राजनीति में सबसे अधिक कब्जा कई दशकों से पंजाबी समाज का है। क्या भाजपा व क्या कांग्रेस , यही नहीं नौकरशाही में भी सारा दबदबा पंजाबी लाबी का हे। इसीकारण दिल्ली की अर्थव्यवस्था पर फलने फूलने का सबसे अधिक मौका भी पंजाबी समाज को ही मिला। आजादी से पहले पाकिस्तान बनने के बाद पाकिस्तान से आये पंजाब प्रांत के लोगों का भी दबदबा आज साफ दिल्ली की राजनीति में देखने को मिलता है। परन्तु आजादी के 65 साल बाद आज दिल्ली की जमीनी व राजनैतिक दोनों तस्वीर में आमूल परिवर्तन हो चूका है। आज दिल्ली केवल उत्तराखण्डियों या किसी अन्य समाज के नाम पर राजनीति नहीं की जा सकती है परन्तु यह भी सही है कि दिल्ली में रहने वाले बहुसंख्यक समाज हो या अल्पसंख्यक समाज किसी की भी उपेक्षा न तो अब की जानी चाहिए। लोकशाही का यही वरदान है यही प्राण है । दिल्ली एक लघु भारत है इसमें जाति धर्म के नाम से या क्षेत्र के नाम पर लोकशाही को बंधक बनाने की अब किसी को इजाजत नहीं दी जा सकती है। इसलिए भाजपा व कांग्रेस सहित तमाम दलों का पहला नैतिक दायित्व हे कि दिल्ली की राजनीति में सभी समाज, धर्म व भाषा के लोगों का बिना भेदभाव से उचित प्रतिनिधित्व प्रदान करने का अवसर दे। शेष श्रीकृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।
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