लोकसभा में मतदान में जीत कर भी नैतिक दृष्टि से हारी मनमोहन सरकार 

एफडीआई पर सपा-बसपा भी जनता के समक्ष बेनकाब 

गांधी ने आर्थिक स्वतंतता हासिल करने के लिए किया विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार

आर्थिक स्वतंत्रता के बिना देश की स्वतंत्रता अर्थहीन

महात्मा गांधी जिनके नाम से कांग्रेस देश में सत्ता का विगत 65 साल से जम कर दोहन कर रही है उन्होंने अमेरिका को मानवीय मूल्यों व हिंसा का पक्षधर मानते हुए अमेरिका के बार बार आमंत्रण मिलने के बाबजूद अमेरिका में कदम रखने से मना कर दिया। उन्होंने भारतीय मूल्यों व वस्तुओं को रक्षा करने के लिए विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार का राष्ट्रव्यापी ऐलान किया। महात्मा गांधी का यह आहवान देश के स्वाभिमान व राष्ट्रीय आर्थिक हितों की रक्षा को देखते हुए थे। उनको इस बात का भान था कि किसी व्यक्ति, समाज व राष्ट्र की आजादी बिना आर्थिक स्वतंत्रता के बिना कोई अर्थ नहीं रखती है। इसी लिए उन्होंने स्वदेशी तंत्र व स्वदेशी उत्पादों को आत्मसात करने का आवाहन किया।
देश के महान प्रधानमंत्री रहे लाल बहादूर शास्त्री ने रेल मंत्री के अपने कार्यकाल में एक रेल दुर्घटना होने पर अपने पद से इस्तीफा देने का सराहनीय साहस किया।  देश के प्रधानमंत्री रहे समाजवादी नेता चन्द्रशेखर ने कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी द्वारा समर्थन वापसी की धमकी मात्र से अपने पद से इस्तीफा दे दिया। इसे कहते हैं नैतिकता। वहीं दूसरी तरफ देश के वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उसी अमेरिका व विदेशी कम्पनियों के लिए देश में लाल कालीन बिछा कर देश को अर्थव्यवस्था को विदेशियों के रहमोकरम पर छोड़ रहे है। संसद में अधिकांश दलों के खुले विरोध के बाबजूद सत्ता पर बेशर्मी से चिपके हुए है और देश में अमेरिकी कम्पनियों के लिए लाल कालीन बिछा कर  देश की आर्थिक स्वतंत्रता पर कुठारा घात कर रहे है। अगर मनमोहन सिंह पर जरा सी भी नेतिकता होती तो वे देश में अधिकांश दलों का अविश्वास जिस योजना पर है उसको जबरन थोपने की धृष्ठता नहीं करते और खोये हुए जनादेश को फिर से हासिल करने के लिए जनता के दर पर फिर सर झुकाते।
देश में खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति देने की मनमोहन सरकार को लम्बी बहस के बाद लोकसभा में 5 दिसम्बर को मतदान में सपा व बसपा के बहिर्गमन के कारण 218 के मुकाबले 253 मतों के सहारे मिली जीत पर कांग्रेसी आला कमान सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित यूपीए नेता जीत का जश्न मना रहे हो, परन्तु संसद में हुई बहस में जनता ने देख लिया कि संसद का बहुमत एफडीआई के विरोध में है, जो सरकार की एक प्रकार से नैतिक हार है। क्योंकि सीबीआई के भय या अन्य प्रलोभनों में फंस कर भले ही सपा व बसपा नेतृत्व लोकसभा में इस प्रकरण में हुए मतदान में बहिर्गमन करने के लिए मजबूर हुए हों परन्तु सदन में चर्चा में उन्होंने खुले आम देश में खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत विदेशी निवेश के खिलाफ विचार रखे।
अगर सपा बसपा के सांसद बहिर्गमन नहीं करते और अपने विचारों के अनरूप वोट देते तो सरकार की मंशा पर पानी फिर जाता। लोकसभा में हुई बहस व मतदान से न केवल मनमोहन सिंह की सरकार की नैतिक हार हुई अपितु देश ने देखा कैसे सपा व बसपा जैसे राजनैतिक दल अपने दलीय स्वार्थो के कारण अपने विचारों के अनरूप ही मतदान करने की हिम्मत तक नहीं कर सकते है।

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