सन्यास ले या रामजन्मभूमि अवतार ले आडवाणी
-अटल बनने की अंधी ललक रही आडवाणी के पतन का कारण
-भाजपा की दुर्दशा के लिए आडवाणी भी कम जिम्मेदार नहीं, 
-गोविन्दाचार्य को नेतृत्व सोंपे संघ, गडकरी भी पूरी तरह असफल 

भले ही पार्टी में अपने आप को अपमानजनक ढंग से अलग थलग किये जाने व संघ-भाजपा में अपने शागिर्द नरेन्द्र मोदी को प्रमुखता दिये जाने से आहत  कभी भाजपा के शिखर पुरूष रहे लालकृष्ण आडवाणी ने इस सप्ताह मुम्बई बैठक से आहत हो कर अपनी पीड़ा को अपने ब्लाग में परोक्ष रूप से इजहार करने की तह में अगर हम जायें तो हम पायेगे कि जिस भाजपा के अटल से अधिक संगठन को मजबूत करने वाले शिखर नेता की तौर पर सम्मानित व प्रधानमंत्री पद के लिए दावेदार के रूप में कई सालों से पार्टी के मुख रहे लालकृष्ण आडवाणी ही आज संघ व पार्टी की नजरों में उपेक्षित होने के लिए खुद ही जिम्मेदार हें।
पार्टी के वरिष्ट व जमीनी नेताओं के बजाय अपनी चैकड़ी डी फोर को प्रमुखता दे कर आडवाणी ने जहां  पार्टी में लोकशाही का गला घोंटा वहीं समर्पित कार्यकत्र्ताओं में भारी निराश किया। पूरे देश में सौगन्ध राम की खाते हैं मंदिर वहीं बनायेगे व राम लल्ला हम आते हैं मंदिर वहीं बनायेगे की हुंकार भरने वाले रामजन्म भूमि जनांदोलन का नेतृत्व करने वाले आडवाणी ने जब बाबरी का कलंक ध्वस्थ होने को अपने जीवन का सबसे काला दिवस कहा तो देश के लाखों आंदोलनकारी स्तब्ध व अपने को ठगे महसूस करने लगे, जब गृहमंत्री व उपप्रधानमंत्री के रूप में पाकिस्तान जा कर वहां देश के विभाजन व 10 लाख निरापराध लोगों की हत्या के मुख्य कारक कायदे आजम मोहम्मद जिन्ना की मजार में सर झुकाने के बाद जिन्ना का गुणागान करके तिवारी ने देश का सर शर्म से झुका दिया। भारतीय संस्कृति के प्रतीक उत्तराखण्ड में ही संघ के वरिष्ठ स्वयं सेवक व जमीनी नेता भगतसिंह कोश्यारी के बजाय हवाई नेता खंडूडी व निशंक को बहुसंख्यक भाजपा विधायकों की इच्छा के विरूद्ध जबरन उत्तराखण्ड में थोपना हो या कर्नाटक में जमीनी नेता येदुरिप्पा के बजाय अपने प्यादे अनन्त कुमार को आगे करना हो या संघ प्रिय भाजपा के सबसे जमीनी नेता गोविन्दाचार्य की उपेक्षा करने में अगर कोई असली दोषी हैं तो वह लाल कृष्ण आडवाणी। आडवाणी के पतन का प्रमुख कारण अगर मुझे कोई दिखाई दे रहा है तो वह है लालकृष्ण आडवाणी का अटल की तरह ढ़ुलमुल व लचीला बनने की नापाक कोशिश। रामजन्म भूमि आंदोलन के बाद उनकी छवि कट्टरपंथी की हो गयी थी, उनको इस बात का भान हो गया था कि देश में अगर प्रधानमंत्री बनना है तो उनको भी अटल की तरह ढुलमुल यानी लचीले नेता की छवि बनानी होगी। जिन्ना प्रकरण व बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद उनके ढुलमुल वक्तव्य इसी दिशा में उठाये गये उनके असफल कदम यही बयान कर रहे है। वे अटल बनने की अंधी चाह ने उनको न तो आडवाणी ही रखा व नहीं अटल ही बन पाये। वे त्रिशंकु बन कर अधर में लटक गये। आडवाणी के इस कदम से संघ ने जहां उनको नेता प्रतिपक्ष से हटवाया वहीं भाजपा में उनकी पकड़ धीरे धीरे कम हो गयी। जहां तक उनके काम भी ऐसे ही रहे उन्होंने भारतीय संस्कृति व जमीनी नेता उमा भारती के बजाय सुषमा स्वराज को आगे बढ़ाया। दिल्ली के जमीनी नेता मदनलाल खुराना की दुर्गति की गयी। भाजपा में कोश्यारी, शेषाद्रिचारी जैसे साफ छवि के जमीनी नेताओं के बजाय निशंक, तरूण, जैन जैसे नेताओं को आगे बढ़ाया गया। इसी कारण भाजपा का दिन प्रति दिन कांग्रेस से अधिक पतन हो रहा है। आज लालकृष्ण आडवाणी को अपने कायो्र पर गंभीरता से मनन करना चाहिए। केवल आरोप लगाने या गडकरी आदि के चंद निर्णयों को कोसने से कोई समस्या हल नहीं होगी। भाजपा में आडवाणी की स्थिति कितनी कमजोर हो गयी है यह तो लाल कृष्ण आडवाणी को उसी दिन समझ लेनी चाहिए थी कि जिस दिन भाजपा में प्रधानमंत्री के पद के दावेदार के रूप में गत लोकसभा चुनाव में प्रमुखता से प्रचारित उनको भाजपा ने इस समय नक्कार दिया और साफ शब्दों में कहा कि अभी पार्टी ने 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में अपना प्रधानमंत्री पद के दावेदार का ऐलान नहीं किया। यानी आडवाणी को पार्टी अब फायर हो चूका कारतूस ही मान रही है। ऐसे में आडवाणी को चाहिए कि वह अपनी स्थिति को समझ कर या तो अविलम्ब राजनीति से सन्यास ले या अपनी भूलों को सुधार कर अपनी रामजन्मभूमि वाले अवतार में आ कर पार्टी में जननेताओं को लेकर अपनी पकड़ बनाये। अटल की तरह ढूलमूल बन कर उनकी स्थिति ठीक ‘चोबे गये छब्बे बनने दूबे बन कर लोटे की तरह ही हो गयी है। आडवाणी व उन जेसे राजनेताओं को एक बात गांठ बांधनी चाहिए कि देश की जनता देश व समाज के स्वाभिमान के लिए राणा प्रताप जैसे जंगल की खाक छानने वाले योद्धाओं को तो युगों तक अपना आदर्श मान सकती है परन्तु अपने निहित स्वार्थ के लिए कालनेमी बने लोगों को कभी स्वीकार नहीं करती। भाजपा व राष्ट्र के हित में सन्यास की उम्र की देहरी में खडे आडवानी को चाहिए की वह अपने स्वाभिमान व भाजपा के हितों की रक्षा के लिए या तो रामजन्मभूमि वाले अवतार के रूप में फिर अवतरित हो कर देश का नेतृत्व करें या सन्यास ले कर नौजवान नेतृत्व की राह के अवरोधक न बने। भाारतीय संस्कृति के ध्वजवाहकों को इस बात का भान होना चाहिए कि उनकी उम्र सन्यास की हो गयी है अब देश की बागडोर नये नेतृत्व के हाथों सोंप दें। वेसे गडकरी का पहला कार्यकाल से साबित हो गया कि वे भारतीय संस्कृति, लोकशाही व भाजपा के तथाकथित उदघोषों के अनरूप गरिमा नय नेतृत्व देने में पूरी तरह असफल रहे। उनको सही को सही व गलत को गलत कहने का न तो साहस है व नहीं दृष्टि। भाजपा में गोविन्दाचार्य जैसे नेतृत्व की आज जरूरत है, जिसको जमीनी पकड़ व दृष्टि हो। परन्तु मोदी प्रकरण से साफ हो गया कि भाजपा में भी कांग्रेस की तरह राष्ट्रवाद से अधिक  जातिवादी संकीर्णता मजबूत है।

   

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