आखिर कब तक सांसें लेगी, समर्थन के बैशाखियों पर टिकी बहुगुणा की सरकार


11 जुलाई को घोषित हुए सितारगंज विधानसभा उप चुनाव का परिणाम के अनुसार प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा 39954 मतों से विजयी हुए। विजयी मुख्यमंत्री को 53 766 मत प्राप्त हुए वहीं उनके प्रतिद्वंद्वी भाजपा प्रत्याशी प्रकाश पंत को 13 812 मत मिले।
परिणाम लोगों की अपेक्षा के अनरूप ही रहा। कांग्रेसी नेता पहले ही इस क्षेत्र से 40 हजार मतों से जीतने का दावा कर रहे थे। परन्तु जिस प्रकार से मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इस सीट को जीतने के लिए यहां पर निर्णायक मत समुह बंगाली को अपने पक्ष में एकतरफा मतदान करने के लिए भूमिधरी का पट्टे का सीधे चुनाव को प्रभावित करने वाला प्रलोभन दिया, उसे भले ही चुनाव आयोग ने नजरांदाज कर दिया हो परन्तु इस सीट के निर्णायक मतदाता समुह ने इसको दिल से स्वीकार कर विजय बहुगुणा के इस अहसान को चूकता कर दिया। वहीं यहां पर निश्चयी विजय का जो प्रमुख कारण रहा मुसलिम मतदाता, जो कांग्रेस का परंपरागत समर्थक माना जा रहा था क्योंकि भाजपा को मुसलिम समुदाय अधिकांश पसंद नहीं करता। जिन परिस्थितियों में चह चुनाव जीता गया वह कांग्रेस व विजय बहुगुणा के लिए ऐतिहासिक हो सकता है परन्तु उत्तराखण्ड व लोकशाही के लिए यह गंभीर चिंतन का विषय है। इससे प्रश्न उठता है कि क्या किसी भी दल या व्यक्ति को अपने चुनाव जीतने के लिए धनबल व सत्ता का इस प्रकार से खुला दुरप्रयोग करना लोकशाही व प्रदेश के लिए कहां तक हितकर है। वैसे भी यह चुनाव सितारगंज से लडा गया। जो भले ही कहने को उत्तराखण्ड का भू भाग हो परन्तु यहां पर सामाजिक तानाबान शेष उस उत्तराखण्डी जनमानस से अलग है जिसने अपने विकास व सम्मान के लिए उत्तराखण्ड का ऐतिहासिक संघर्ष किया था। यहां पर रहने वाले अधिकांश लोग प्रदेश की मूलधारा के बजाय बंगाल व उप्र सामाजिक तानाबाना से ज्यादा जुडे हुए हे। गौरतलब है कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय भी ऊधम सिंह नगर सहित प्रदेश के मैदानी भाग में इस उप्र से अलग प्रदेश बनाने का पुरजोर विरोध किया था। यह तत्कालीन राज्य की सीमा निर्धारण करने वाले भाजपाई आला नेताओं की उत्तराखण्ड के प्रति गहरे दुराग्रह का परिणाम रहा कि उसने जो क्षेत्र उत्तराखण्ड की परंपरागत सीमाओं से अलग रहा उसको बलात उत्तराखण्ड में थोप कर उत्तराखण्ड राज्य बनाने व यहां के विकास की उस मंसा पर ही ग्रहण लगा दिया। राज्य गठन के बाद यहां के हुक्मरानों ने जिस प्रकार से प्रदेश गठन के उद्देश्यों के प्रति न केवल उदासीन रहे अपितु उन्होंने इस राज्य गठन की मूल अवधारणा व उद्देश्य को ही जमीदोज करने का काम ही किया।
इस चुनावी जीत के बाद लोग एक ही प्रश्न कर रहे हैं कि विजय बहुगुणा सरकार पांच साल चल पायेगी या नहीं? प्रदेश के मुख्यमंत्री की जीत पर किसी को शंका नहीं थी। परन्तु जिस प्रकार से प्रदेश कांग्रेस के क्षत्रपों में अघोषित खुली जंग छिड़ी हुई हैं उसको देख कर लोगों की आशंका को निराधार नहीं मानी जा सकती। कांग्रेसी सुत्रों पर विश्वास किया जाय तो भाजपा के कई विधायक कांग्रेसी मठाधीशों के सम्पर्क में है। इसी आशंका का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए भाजपा ने भी अब न चाहते हुए प्रदेश कांग्रेस सरकार को उसी की भाषा में जवाब देने का मन बना लिया है। इसी घात प्रतिघात की राजनीति में प्रदेश के लोगों के ही नहीं अपितु देश की राजनीति के विशेषज्ञ बहुगुणा की जीत पर एक ही सवाल उठा रहे हैं कि आखिर कब तक चलेगी यह विजय बहुगुणा की सरकार? कोई अति उत्साही लोग चुनाव जीतने के तीन महिने व तो कोई छह माह के अंदर विजय बहुगुणा की विदाई प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से निश्चित मान रहे है। जिस प्रकार से कांग्रेस के कई दिग्गज नेता ही नहीं अपितु बहुगुणा मंत्रीमण्डल के कई मंत्री व विधायक विजय बहुगुणा सरकार से संतुष्ट नहीं है, ऐसी स्थिति में निर्दलीय व बसपा -उक्रांद के समर्थन से सत्तासीन हुई विजय बहुगुणा सरकार कब तक इस विद्रोही झंझावत से अपनी किस्ती को पार लगा पाती है या इसी चक्र व्यूह में फंस कर भूतपूर्व हो जाती है। हालांकि मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा व उनके सलाहकारों की इस समर्थन की बैशाखियों को भाजपाई विधायकों को कांग्रेसी बना कर दूर करने की है। इसी रणनीति के कारण भाजपा के कई विधायकों से सीधे संवाद अघोषित रूप से मुख्यमंत्री खेमे का लगातार बना हुआ है। सुत्रों की अगर माने तो सितारगंज चुनाव तक इस दाव को कांग्रेसी मठाधीशों ने रोक रखा था, उसके बाद समर्थन की बैशाखियों को दूर करने के लिए मुख्यमंत्री भाजपा को एक के बाद एक सितारगंज के किरण मण्डल जैसे आघात दे सकते हें। इसी शह और मात के द्वंद में उलझी प्रदेश की राजनीति क्या रंग लायेगी इसी पर राजनीति के मर्मज्ञ भी आंखे गढ़ाये हुए है। वहीं प्रदेश की जनता प्रदेश की राजनैतिक दूर्दशा को देख कर ठगा सा महसूस कर रहे हैं।
प्रदेश के तमाम संसाधन व हितों को यहां पर झोंकने की प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के कदम व भाजपा के कमजोर जवाब से यह चुनावी समर से पहले ही लोगों के मानसपटल पर अंकित हो गया था कि सितारगंज मे विजय बहुगुणा की विजय एकतरफी है। यही नहीं लोग सवाल भी कर रहे थे कि अगर सबकुछ दाव पर लगाने के बाद भी सितारगंज से विजय बहुगुणा चुनाव अब नहीं जीतते तो फिर कब जितेंगे। हालांकि चुनावी समर में तमाम संसाधनों को झोंकने के बाबजूद हार का मुंह देखना विजय बहुगुणा के साथ नयी घटना नहीं है। टिहरी लोकसभा चुनाव में जब तक टिहरी संसदीय सीट पर टिहरी के पूर्व नरेश मानवेन्द्र शाह चुनावी दंगल में सांसद के चुनाव मे उतरे तो बहुगुणा को लगातार हार का ही दंश झेलना पडा। हालांकि मर्यादित चुनाव के पक्षधर लोग उनकी इस सितारगंज उप चुनाव में हुई जीत को हार से कम नहीं मान रहे है।
सितारगंज विधानसभा उपचुनाव में 8 जुलाई रविवार को हुए मतदान में 76.38 फीसद मतदाताओं ने बडे ही उत्साह से अपने मतदान का प्रयोग किया। इस सितारगंज विधानसभा सीट में कुल 91480 मतदाताओं में से 48966 पुरुष व 42514 महिला है। कुछ माह पहले सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव 2012 में इस विधानसभा में भाजपा के किरन चन्द मंडल 29280 मत लेकर विजयी रहे थे, वहीं दूसरे नम्बर पर बसपा के नारायण पाल को 16668 मत, कांग्रेस के सुरेश कुमार को 15560 मत मिले थे। परन्तु यहां के भाजपा विधायक द्वारा कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए विधानसभा जाने के द्वार अपनी विधानसभा से खोलने के उदेश्य से भाजपा व विधानसभा से दिये गये इस्तीफे के बाद यहां का राजनैतिक परिदृश्य बिलकुल ही बदल गया।
हालांकि मतदान के बाद 8 जुलाई को जहां कांग्रेसी प्रत्याशी विजय बहुगुणा ने भाजपा पर अपनी छवि को धूमिल करने का आरोप लगाते हुए अपनी जीत एक ऐलान किया। वहीं भाजपा ने अप्रत्यक्ष रूप से एक प्रकार से हार मानते हुए मुख्यमंत्री व कांग्रेस पर धनबल व सरकारी तंत्र के खुले दुरप्रयोग का आरोप लगाया। वहीं भाजपा के प्रत्याशी प्रकाश पंत ने इस बात पर खुशी प्रकट की कि भाजपा को प्रबुद्ध व जागरूक वर्ग ने भारी संख्या में मतदान किया।
सितारगंज विधानसभा चुनाव का परिणाम 11 जुलाई को घोषित होने से काफी पहले ही आम जनता को मालुम था। जिस प्रकार से मुख्यमंत्री ने सितारगंज विधानसभा में निर्णायक संख्या में रहने वाले बंगाली समाज के हितों को प्रभावित करने वाला ‘भूमिधरी का तौहफा’ का ऐलान के साथ यहां पर विकास की कई घोषणायें करके पूरा शासन तंत्र यहां झोंक दिया था, उससे सियासी जानकार लोग चुनाव आयोग की अधिसूचना निकलने से पहले ही इस सीट पर प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की एकतरफी जीत का ऐलान कर चूके थे। क्योंकि इस सीट में प्रभावशाली संख्या में रहने वाले बंगाली समुदाय के साथ साथ ही कांग्रेस का परंपरागत मतदाता यानी मुसलिम समाज भी दूसरे बडे तबके के रूप में यहां पर विद्यमान था। इसके अलावा जिस प्रकार कांग्रेस के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा पर भाजपा ने खुल कर धनबल व सरकारी तंत्र झोंकने का खुला आरोप लगाते हुए कोई इस क्षेत्र को मजबूत प्रत्याशी विजय बहुगुणा के समक्ष उतार पाने में असफल रहे , ये तमाम समीकरण ही विजय बहुगुणा की विजय की कहानी को मतदान से हपले ही उजागर कर रही थी।
लोगों के यह विश्वास केवल हवाई नहीं अपितु सितारगंज की सामाजिक तानाबाना व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की चुनावी रणनीति के आगे भाजपा की असहाय स्थिति को देख कर लोगों ने चुनाव की रणभेरी बजने से पहले ही मान लिया था कि सितारगंज से मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ही हर हाल में
विजय होगे।
हालांकि लोगों की इस धारणा के पीछे सितारगंज में चली प्रदेश के मुख्यमंत्री के राजनैतिक चक्रव्यूह ही था। जिससे उन्होने भाजपा के विधायक को ही नहीं अपितु यहा ंपर निर्णायक संख्या में रहने वाले बंगाली समाज को अपने पक्ष में खड़ा कर दिया था। इसके साथ मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने अपने सम्पर्कों के आधार पर व वर्तमान देश की राजनीति के तानाबाना के आधार पर इस उप चुनाव में सितारगंज विधानसभा चुनाव में जहां सपा व बसपा को भी अपने पक्ष में खड़ा करने में सफलता हासिल की। जिससे यहां पर कांग्रेस का परंपरागत मुसलिम मतदाता, उसके पक्ष में ही खड़ा रहा। बंगाली व मुसलिम मतदाताओं की एकपक्षीय रूझान व सितारगंज के अधिकांश मजबूत समाजिक स्तम्भों को अपने पक्ष में खड़े करने में कांग्रेस ने सफलता हासिल चुनाव से पहले ही चुनावी माहौल मे चुनावी रणभेरी बजने से पहले ही हवाई बढ़त ले कर करके भाजपा को करारी मात दे दी।
बंगाली बाहुल्य सितारगंज विधानसभा के उप चुनाव में उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के बंगाली कार्ड की काट के लिए भाजपा ने प्रचार में उतारी भारतीय सिनेमा जगत की मसहूर स्वप्न सुन्दरी हेमामालनी । गौरतलब है कि ड्रीम गल्र्स के नाम से कई दशकों से भारतीय सिनेमा जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये रखने वाली हेमामालनी, भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष, राज्यसभा सांसद के साथ साथ बंगाली मूल की भी है। सितारगंज में सम्पन्न हुई इस सभा में भाजपा के तीन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष उपस्थित थे। इनमें श्रीमती हेमामालनी के अलावा उत्तराखण्ड के सबसे जमीनी भाजपा नेता व पूर्व मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी व रमेश पोखरियाल निशंक भी उपस्थित थे। हेमामालनी के आगमन से भले ही भाजपा के वोटबंेंक में भले कोई बढ़ोतरी हो या न हो परन्तु उनके प्रचार के समय मंचासीन भाजपा नेताओं व आम कार्यकत्र्ताओं के साथ साथ दशकों से हेमामालनी को सिनेमा के पर्दे में देख कर उनके चकोर बने देश के आम जनमानस की तरह ही सितारगंज के आम आदमी के चेहरे में हेमामालनी को अपने क्षेत्र में साक्षात देख कर प्रसन्नता से खिले हुए दिखे।
सितारगंज विधानसभा उप चुनाव मैंदान से चंद दिनों पहले जिस प्रकार से खुद को बंगाली होने का राग छेड कर,उत्तराखण्ड में एकमात्र बंगाली मतदाता प्रभावित विधानसभा सीट से भाजपा के विधायक को अपने समर्थन में इस्तीफा दिलाया, उससे न केवल पूरे प्रदेश में भाजपा की अपितु प्रदेश के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की किरकिरी हुई।
कांग्रेसी मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा से मिले इस करारे तमाचे से तिलमिलाई भाजपा ने इस विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के ताल ठोकने के बाद यहां से किसी बंगाली को चुनावी दंगल में उतारने की हर संभव प्रयास किया। इसी लिए इस सीट से भाजपा के सबसे प्रचण्ड युवा नेता वरूण गांधी की बंगाली पत्नी को यहां से भाजपा का प्रत्याशी बनाने की भी हर संभव प्रयास किया गया। जिसे वरूण गांधी की सांसद माॅं मेनका गांधी ने सिरे से नकार दिया। उसके बाद भाजपा ने काफी जिद्दोजहद के बाद भाजपा के वरिष्ट नेता व पूर्व विधानसभाध्यक्ष प्रकाश पंत को चुनावी दंगल में उतारा। भाजपा नेताओं को इस बात का भय सता रहा था कि कहीं ऐसे वेसे नेता को अगर यहां से भाजपा का प्रत्याशी बना दिया और उसको भी सितारगंज के विधायक मंडल की तरह अपने मोहपाश में बांधने का काम फिर मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कर लिया तो भाजपा किसको मुंह दिखायेगी। इसी लिए विचारधारा से कट्टर नेता प्रकाश पंत को ही चुनाव मैदान में उतारने का काम किया गया। हालांकि प्रकाश पंत अपनी विधानसभा क्षेत्र से प्रदेश के विधानसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता मयूख महर से हार चूके थे। हालांकि इस विधानसभा के उपचुनाव में भाजपा के खण्डूडी व कोश्यारी जैसे दिग्गज नेताओं का नाम भी उछाला जा रहा था। परन्तु सितारगंज विधानसभा सीट में बंगाली व मुसलिम मतदाताओं के निर्णायक उपस्थिति को देख कर भाजपा ने अपने भगतसिंह कोश्यारी व भुवनचंद खण्डूडी जैसे कद्दावर नेताओ को चुनावी दंगल में उताने का चाह कर भी जोखिम नही उठा सकी। परन्तु इस विधानसभा में 8 जुलाई को हुए भारी मतदान व 11 जुलाई को निकले चुनाव परिणामों ने यह साबित कर दिया कि भाजपा के पास नैतिक दृष्टि से काफी कमजोर कांग्रेसी मुख्यमंत्री ं विजय बहुगुणा के पाशो की काट भी नहीं है। हालांकि भाजपा चाहती तो वह विजय बहुगुणा को पहले ही कदम पर पानी पिला सकती थी। यही नहीं सितारगंज में जिस प्रकार से भाजपा ने बसपा को छोड़ने वाले नारायण पाल को भी अपनी उदासीनता के कारण कांग्रेसी पाले में जाने दिया। अगर नारायण पाल यहां से चुनावी दंगल में भाजपा की तरफ से उतरते तो विजय बहुगुणा या तो मैदान छोड़ देते या यहां से विजय होने के लिए काफी पसीना बहाना पड़ता। यही नहीं भाजपा के पास विजय बहुगुणा को जनता के सामने पूरी तरह से बेनकाब करने वाले मुद्दे भी जिस तरह से आधे अधूरे व कमजोर तरीके से उठाये उससे विजय बहुगुणा के खिलाफ कांग्रेस के अधिकांश विधायकों में असंतोष होने के बाबजूद भाजपा नेतृत्व इसको भुना नहीं पाया। वहीं बहुगुणा न केवल कांग्रेसियों की असंतोष की धार कमजोर करने के लिए विरोधी दल भाजपा के विधायकों में सेंघ मारने की रणनीति को युद्ध स्तर पर जारी रख कर भाजपा को ही नहीं अपने विरोधी कांग्रेसियों को भी भौचंक्का कर दिया। लोगों को विश्वास है कि विधानसभा चुनाव के बाद चुनावी समर से विजयी होने के बाद बहुगुणा भाजपा के उन सभी विधायकों को कांग्रेस का द्वार खोल देंगे जिनसे उनकी बात पूरी हो चूकी है। इस कदम से वे न केवल प्रदेश में भाजपा के विरोध की धार को कूंद करने की रणनीति पर अमल कर रहे हैं अपितु इससे वे कांग्रेस में अपने विरोधियों को भी जमीन सुघाने का काम करेंगे। देखना यह है कि प्रदेश की राजनीति में कांग्रेसी थोपशाही का यह ऊंट किस करवट बैठता है। शेष श्रीकृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।
 

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