चीमा जी , आम लोग नहीं, नेता हैं बोझ उत्तराखण्ड पर

काशीपुर से भाजपा के विधायक हरभजन सिंह चीमा द्वारा उत्तराखण्ड मूल के पर्वतीय लोगों को तराई पर बोझ बताने की उत्तराखण्डी सामाजिक संस्थाओं ने कडी भत्र्सना की। एक स्वर में उत्तराखण्ड राज्य गठन आंदोलन के प्रमुख संगठन उत्तराखण्ड जनता संघर्ष मोर्चा सहित तमाम आंदोलनकारी संगठनों व सामाजिक संगठनों ने एक स्वर में भाजपा से उत्तराखण्ड की सामाजिक तानाबाना को अपनी संकीर्ण मनोवृति के सूचक बयानों से तहस नहस करने वाले विधायक हरभजन सिंह चीमा को पार्टी से तत्काल निकाल बाहर कर देना चाहिए। सभी संगठनों ने चीमा के बयान को उत्तराखण्ड द्रोही बताते हुए कहा कि श्री चीमा जैसे संकीर्ण मानसिकता के नेताओं को समझ लेना चाहिए कि जिस पहाड़ के लोगों ने अपनी तराई में उन जैसे हजारों बेसहारा लोगों को आश्रय दिया वे आज कैसे बोझ हो गये। आंदोलनकारी संगठनों कहा कि हकीकत तो यह है कि आज उत्तराखण्ड का आम आदमी के विकास पर यहां के हरभजन सिंह चीमा जैसे नेता ही बोझ हो गये हैं। गौरतलब है कि चीमा ने बयान दिया कि ‘पहाड़ के लोगों ने तराई में बडे पैमाने पर पलायन करके तराई पर बोझ बन गये हैं और इसके कारण दशकों से तराई को अपनी मेहनत से आबाद करने वाले लोग यहां से पलायन से मजबूर हो गये है’ । यह बयान सभी समाचार पत्रों में बड़ी प्रमुखता से प्रकाशित हुआ और इससे लोगों ने खुद को अपमानित महसूस किया। देहरादून के अग्रणी समाजसेवी महावीर प्रसाद लखेड़ा ने कहा कि तराई में बसने वाले पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को बोझ बताने वाले चीमा को भान होना चाहिए कि उत्तराखण्ड के पहाडी क्षेत्रों से मैदानी सीटों पर राजनीति करने वाले नेता ही बोझ है।
इस बयान पर राज्य आंदोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले मोर्चे के प्रमुख देवसिंह रावत ने कहा कि यह हकीकत है कि उत्तराखण्ड के लोगों ने हमेशा किसी को अपमान इस प्रकार से नहीं किया। उत्तराखण्डियों ने जिस उदारता व मानवता से जरूरत मंद पंजाबियों, बंगालियों सहित देश के लोगों को उत्तराखण्ड की धरती पर स्वागत व पनाह ही नहीं आत्मसात भी किया, उसका बदला चीमा, बेहड़ व मदन कौशिक जैसे नेताओं को विकास से वंचित पर्वतीय क्षेत्र के हितों पर अपने निहित स्वार्थ के लिए कुठाराघात नहीं करना चाहिए। तराई फिरंगी राज से पहले भी पर्वत का ही आंगन रहा । उन्होने कहा कि उत्तराखण्ड राज्य गठन के समय भी ऐसे ही नेताओं ने इस विकास व लोकशाही को मजबूत करने वाले आंदोलन को बदनाम करके पहाड़ व मैदान के द्वंद बता कर बदनाम करने की नापाक कोशिश की, परन्तु उत्तराखण्ड के लोगों ने इस को नजरांदाज करके भी राज्य में उनकी भागेदारी को सहज ही स्वीकार किया।
श्री रावत ने कहा कि आज पर्वतीय लोगों को बोझ बताने वाले चीमा अगर यह कहते कि उत्तराखण्ड के नेता उत्तराखण्ड पर बोझ हो गये तो प्रदेश की जनता उनका स्वागत करती। क्योंकि जिस प्रकार से गिरगिट अपने स्वार्थ के लिए रंग बदलता है उसी प्रकार उत्तराखण्ड के नेता अपनी सीटें पर्वतीय क्षेत्र से बदल कर मैदानी क्षेत्रों की तरह रूख कर रहे हैं। इनमें प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा हो या भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री खण्डूडी व निशंक या केन्द्रीय मंत्री हरीश रावत हो या प्रदेश की कबीना मंत्री अमृता रावत, कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य हो या अन्य नेता सभी पर्वतीय क्षेत्रों को छोड़ कर आज मैदानी क्षेत्रों में अपनी विधानसभा सीट बदल चूके है। श्री रावत ने अफसोस प्रकट किया कि प्रदेश की राजनीति में जब विजय बहुगुणा जैसे अपने स्वार्थ के लिए बंगाली बताने वाले नेता सत्तासीन रहेगें तब तक ऐसी समस्यायें निरंतर विकट होती रहेंगी। इससे मैदानी क्षेत्र के चीमा जैसे नेताओं में असुरक्षा होना स्वाभाविक हैं परन्तु उनको अपनी मर्यादाओं का भान होना चाहिए कि उनके बयान से प्रदेश में सामाजिक सौहार्द पर ग्रहण लग सकता है।
आज सवाल पहाड़ या मैदान का नहीं उत्तराखण्ड का है। अपितु प्रदेश को बचाने का है। जिस प्रकार से उत्तराखण्ड के सत्तालोलुपु तिवारी व खण्डूडी जैसे मुख्यमंत्रियों ने अपने कार्यकाल में जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई परिसीमन को झारखण्ड व पूर्वोत्तर के नेताओं की तरह जनसंख्या पर आधारित विधानसभाई परिसीमन से बचाने का अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन तक नहीं किया, उससे उन पर्वतीय क्षेत्र के लोगों में गहरा आक्रोश है जिन्होने राव-मुलायम जैसे अमानवीय सरकारों के जुल्मों को सह कर भी संघर्ष करके उत्तराखण्ड राज्य का गठन किया था।
श्री रावत ने कहा कि उत्तराखण्ड में विकास करने के बजाय यहां के हुक्मरानों ने पहाड़ी मैदानी, जातिवाद व क्षेत्रवाद का सहारा लेकर प्रदेश को भ्रष्ट्राचार के गर्त में धकेल दिया है। उन्होंने जनता से अपील की कि इस प्रकार के नेताओं के बयानों पर न बह कर प्रदेश में लोकशाही को मजबूत करने में अपना योगदान दे कर इन नेताओं का षडयंत्र बेनकाब करें।
 

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