-सेक्सुअल फ्रिडम के लिए उमडी मीडिया और गो हत्या बंदी आंदोलन को किया नजरांदाज
-चोथे स्तम्भ का चेहरा बेनकाब
21 अप्रैल 2012 को संसद की चैखट राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर पर सेक्सुअल फ्रिडम यानी योन स्वतंत्रता नामक आंदोलन ने देश के चोथे स्तम्भ होने का दंभ भरने वाली मीडिया को पूरी तरह से बेनकाब ही कर दिया। इस कार्यक्रम के लिए भारतीय मीडिया में जिस प्रकार की उत्सुकता गत सप्ताह शनिवार से आज तक देखने को मिली, वह बेताबी ही भारतीय मीडिया को पूरी तरह से बेनकाब कर गयी। जहां पर देश विदेश का मीडिया दो नाबालिक बच्चों को भारतीय संस्कृति का दुहाई देने वाले बेनर को थामे चार आदमी ही खडे थे। देश का मीडिया उस व्यक्ति के फोटों लेने के लिए एक प्रकार से उमड रहे थे। उसी स्थान से 5 मीटर की दूरी पर भारत में हो रही गो हत्या पर अंकुश लगाने की मांग को लेकर आंदोलन कर रहे साधु व उनके चार समर्थक बैठे हुए थे। यहां पर देश की स्वनाम धन्य मीडिया जो सेक्सुअल फ्रिडम वाले आंदोलनकारी पर सम्मोहित थी। वहीं वे गो हत्या पर अंकुश लगाने की मांग को लेकर कई दिनों से आंदोलन कर रहे हरियाणा के साधु व उनके साथियों की तरफ एक हिराकत भरी दृष्टि डाल कर नजरांदाज कर रहे थे।
हुआ यों कि पश्चिमी उन्मुक्त सेक्स सम्बंधों की स्वतंत्रता से प्रभावित हो कर भारत में भी इसी प्रकार की उन्मुक्तता की इजाजत देने की मांग को लेकर एक संगठन कई महिनों से विशाल प्रदर्शन करने का प्रचार कर रहा था। गत सप्ताह शनिवार को इस व्यक्ति की रेली को इस लिए इजाजत नहीं दी गयी कि उसका विरोध गोविन्दाचार्य व उनके संगठन ने किया। इसी आधार पर शासन ने इस रेली के आयोजन की ही इजाजत नहीं दी। इसके बाद 21 अप्रैल यानी शनिवार को इस प्रदर्शन का ऐलान किया गया। इसमें प्रचार किया गया कि दिल्ली की योनकर्मी व इस मांग का समर्थन करने वाले लोग भी बड़ी संख्या में इस प्रदर्शन में भाग लेंगे। इस प्रदर्शन की मीडिया ही नहीं आम लोग भी बड़ी उत्सुकता से इंतजारी कर रहे थे। परन्तु गत सप्ताह की भांति इस सप्ताह भी आयोजक न तो दिल्ली पुलिस की अनुमति ही हासिल कर पाया व नहीं वह इस तथाकथित प्रदर्शन में अपने समर्थकों को ही जंतर मंतर तक ला पाया। आयोजक द्वारा इन दो सप्ताह में दो बार कार्यक्रम का आयोजन न किये जाने पर मीडियाकर्मी काफी परेशान व नाराज से लगे। परन्तु इनमें से किसी को भी राष्ट्रीय धरना स्थल पर कई दिनों से चल रहे गो हत्या पर अंकुश लगाने वाला आंदोलन हो या अपने को जीवित व्यक्ति घोषित करने के लिए महिनों से धरना दे रहे उप्र के संतोष कुमार की गुहार हो या 1995 से न्याय के लिए यायावरों की तरह जंतर मंतर के आसपास भटक रहे गुजरात की महिला अध्यापिका व उनके पति का वर्षो पुराना संघर्ष भी मीडिया को कहीं दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिया। न तो उनको अपनी सामाजिक दायित्व का भान हुआ व नहीं उनको इंसानियत ही द्रवित कर पायी। उनको तो केवल 21 अप्रैल को सेक्सुअल फ्रिडम वालों को देखने की चाह थी। भारतीय मीडिया की भरमार देख कर जंतर मंतर पर लोग टिप्पणी कर रहे थे कि जनहित के कार्यक्रमों में लाख बुलाने के बाद भी मीडिया बहुत ही मुश्किल से एक दो मिनट के लिए वहां पर पधारते है। अधिकांश तो ये लोग आते ही नहीं। आते भी हैं तो ऐसे आते हैं जैसे इन्होंने कितना बड़ा अहसान कर दिया हो। वहीं दूसरी तरफ सेक्सुअल फ्रिडम वाले कार्यक्रम के लिए दोहपर बारह से 1 बजे तक अधिकांश मीडिया यहां पर बेशब्री से इतजार कर रहे थे।
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