-देशद्रोह से कम नहीं है शिक्षा का निजीकरण


-देशद्रोह से कम नहीं है शिक्षा का निजीकरण
-शिक्षा, चिकित्सा व न्याय का देश की सुरक्षा की तरह निजीकरण किसी भी कीमत पर नहीं होना चाहिए


देश में शिक्षा का निजीकरण देश ही नहीं मानवता के साथ भी किया जाने वाला सबसे बड़ा अपराध है। मेरी बचपन से ही यह स्पष्ट धारणा रही है कि देश में ही नहीं पूरे विश्व में प्रत्येक शिशु को शिक्षा ग्रहण करने का जन्मसिद्ध अधिकार है। यह माता पिता का ही नहीं अपितु देश व संसार की तमाम सरकारों का प्रथम दायित्व है कि वह प्रत्येक बच्चे का उचित लालन पालन करने के साथ ही उसको उचित शिक्षा प्रदान करे। अगर संसार को एक भी व्यक्ति अशिक्षित व उचित शिक्षा से वंचित रह जाता है तो वह पूरे संसार की शांति व समाज के ताना बाना पर ग्रहण लगाने का कारण बन सकता है। इसलिए पूरे विश्व में एक मानक शिक्षा दी जानी चाहिए। शिक्षा देश व समाज के मानकों के हिसाब से दी जानी चाहिए। शिक्षा प्रदान करना प्रत्येक देश के लिए देश की सीमाओं की रक्षा करने की तरह ही परम आवश्यक है।
मेरा साफ मानना है कि कल्याणकारी व्यवस्था में सरकार को शिक्षा, चिकित्सा व न्याय का किसी भी हाल में निजीकरण के रहमोकरम पर छोड़ना एक प्रकार से देश ही नहीं पूरे मानव समाज के साथ खिलवाड़ है। जिस प्रकार देश की सुरक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता उसी प्रकार मानवीय समाज की प्राण समझे जाने वाली शिक्षा, चिकित्सा व न्याय को भी किसी भी सूरत में निजीकरण या बाजारीकरण के रहमो करम पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
जो सरकारें शिक्षा, चिकित्सा व न्याय का निजी हाथों में छोड़ती है वह एक प्रकार से अपनी ही जड़ों में अपने ही हाथों से गला घोंटने का काम करती है। क्योंकि अगर एक भी बच्चा अशिक्षित रह गया तो उसका दण्ड न केवल वह भुगतता रहता है अपितु उसका परिवार के साथ साथ पूरा देश व विश्व समाज भी भोगने को विवश
होता है।
संसार में जितने भी दुर्दान्त अपराधी, कुशासक व भ्रष्टाचारी हुए उनके पीछे अगर कोई महत्वपूर्ण कारण समय पर उचित शिक्षा न मिलने के कारण उस अशिक्षित व्यक्ति के साथ पूरी व्यवस्था व विश्व समुदाय को भी भोगना पडता है। सही शिक्षा न मिलने के कारण ही इस विश्व में हिटलर, चंगैज, ओरंजेब, ओसमा, दाउद, बुश, इदी अमीन जैसे कुशासक व तानाशाह का दंश पूरे मानव समाज को झेलना पड़ा।
संसार के अग्रणी दार्शनिक काला बाबा भी देश की सरकारों पर इस बात के लिए फटकार लगाती थी कि इन सरकारों की नालायकी के कारण शिक्षा व्यापार, राजनीति व्यापार, धर्म व्यापार व चिकित्सा व्यापार में तब्दील हो कर पूरी व्यवस्था चैपट यानी तबाह हो चूकी है।
सरकार की पूरी व्यवस्था आज तबाही के कगार पर खड़ी है। देश के सत्तालोलुपु हुक्मरानों के कारण आम गरीब आदमी से शिक्षा, चिकित्सा व न्याय कोसों दूर हो गया है। एक गरीब आदमी न तो अपने बच्चों को इन पंचतारा संस्कृति के ध्वज वाहक बने निजी क्षेत्र के फाइव स्टारी स्कूलों में मोटी फीस व दाखिले का मकड़जाल रूपि गांधीवादी वातावरण को देख कर अधिकांश गरीब बच्चों की तो रही दूर उनके अभिभावकों की भी हिम्मत तक नहीं होती है, इन शिक्षा के व्यापारियों की स्कूलों की तरफ झांकने की। ऐसा ही हाल चिकित्सालय व न्यायालय का भी है। आम आदमी तो न्यायालय में न्याय मिलने की लम्बी व थका देने वाली प्रक्रिया से परेशान हो कर न्याय के दर पर फरियाद करने के बजाय मन मार कर केवल भगवान के नाम की गुहार लगाना ही बेहतर समझता है।
 मेरे इन दशकों से चिंतन मंथन के बाद परिष्कृत हुई इस धारणा को यहां पर कलमबद्ध कर रहा हॅू। हालांकि कई बार इन बिन्दुओं को मैं अपने लेखों में उजागर कर चूका हॅॅॅू। गत सप्ताह सुप्रीम कोर्ट ने भी  शिक्षा का अधिकार कानून 2009 की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए फेसला दिया कि गरीब तबकों के बच्चों को देशभर के सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें निशुल्क मिलनी चाहिए। भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसएच कपाड़िया, न्यायमूर्ति केएस राधाकृष्णन व न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार की पीठ ने शिक्षा का महत्व समझते हुए बहुमत के विचार से कहा कि यह कानून सरकारी और गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों में समान रूप से लागू होगा। सिर्फ गैर सहायता प्राप्त निजी अल्पसंख्यक स्कूल इसके दायरे से बाहर होंगे। हालांकि न्यायमूर्ति राधाकृष्णन ने इससे असहमति जाहिर की कि यह कानून उन गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों और अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगा जो सरकार से कोई सहायता या अनुदान हासिल नहीं करते। लेकिन न्यायमूर्ति राधाकृष्णन की राय को न्यायमूर्ति कपाड़िया व न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार ने नहीं माना। उन्होंने कहा कि यह कानून गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूलों पर भी लागू होगा। शीर्ष न्यायालय ने स्पष्ट किया कि उसका फैसला बृहस्पतिवार से ही प्रभावी होगा। इसका अर्थ है कि कानून बनने के बाद (बृहस्पतिवार से पहले) किए गए दाखिले पर यह लागू नहीं होगा। दूसरे शब्दों में शीर्ष अदालत ने कहा कि इस फैसला का प्रभाव पिछली तारीख से नहीं बल्कि इसके बाद से होगा। शीर्ष न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने पिछले वर्ष तीन अगस्त को गैर सहायता प्राप्त निजी संस्थानों द्वारा दाखिल याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रखा था। इन याचिकाओं में कहा गया था कि शिक्षा का अधिकार कानून निजी शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 19 (1) जी के तहत दिए गए अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसमें निजी प्रबंधकों को सरकार के दखल के बिना अपने संस्थान चलाने की स्वायतत्ता प्रदान की गई है। भले ही सर्वोच्च न्यायालय का शिक्षा पर आया फेसला क्रांतिकारी कदम माना जा रहा है।
भले ही सर्वोच्च न्यायालय ने जिस दिशा में यह लेख संकेत करता है उस विचार पर अपनी मुहर नहीं लगायी है। परन्तु इतना सर्वोच्च न्यायालय ने भी माना कि गरीब बच्चों को भी इस देश में अमीर बच्चों की तरह ही शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है। सर्वोच्च न्यायालय का फेसला अंधेरे में भटक रहे इस राष्ट्र के लिए भले ही जुगुनु की तरह राष्ट्र का मार्ग दर्शन करने वाला साबित हो। परन्तु जिस दिशा में मै संकेत कर रहा हूू अभी उस दिशा पर विचार व मनन करने के साथ कदम उठाने के लिए लगता है अभी इस देश में समय लगेगा। परन्तु इतना निश्चित है कि देश या विश्व में शिक्षा किसी भी हाल में निजी क्षेत्र के रहमोकरम पर नहीं छोड़ी जानी चाहिए।
शेष श्रीकृष्ण कृपा। हरि ओम तत्सत्। श्रीकृष्णाय् नमो।

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