पेशावर काण्ड दिवस के महानायक चन्द्रसिंह गढवाली व साथियों को शतः शतः नमन्

23 अप्रैल पेशावर काण्ड दिवस पर इस काण्ड के महानायक वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली व उनके 72 सैनिक साथियों की माॅं भारती की शान की रक्षा के लिए पूरी मानवता का शत् शत प्रणाण।
जालिम फिरंगी हुकुमत के दोरान 23 अप्रैल 1930 को  पेशावर के किस्साखानी बाजार के काबुली फाटक पर आंदोलन कर रहे अब्दुल गफार खाॅं के नेतृत्व में आंदोलन कर रहे खुदाई सिदमतगार सत्याग्रहियों पर अंग्रेजी कमांडर कैप्टन रिकेट द्वारा गढ़वाली के नेतृत्व वाले 2/13 राॅयल गढ़वाल रायफल को दिये गये गोली चलाने  के आदेश को मानने से मना करने से फिरंगी हुकुमत की चूले हिल गयी थी। भारतीय आजादी की जंग के इस ऐतिहासिक घटना ने फिरंगी हुकुमत की चूले हिला दी। 1857 के बाद यह फिरंगी हुकुमत के खिलाफ भारतीय सैनिकों का सबसे बड़ा विद्रोह के रूप में देखा गया। फिरंगी हुकुमत ने सभी महानायकों को उसी समय गिरफतार करके उन पर देशद्रोह का मुकदमा चलाया। माॅं भारती के लाल महानायक चन्द्रसिंह गढ़वाली को इस विद्रोह के लिए जहां आजीवन उम्रकेद की सजा हुई वहीं उनके 16 सैनिक साथियों को दस-दस साल की सजा मिली। वीर चन्द्रसिंह गढ़वाली के नेतृत्व में हुए इस विद्रोह से भारतीय आजादी की जंग में नई दिशा मिली। गांधी व उनके अनुयायियों को ही नहीं क्रांतिकारियों में भी पेशावर काण्ड ने नया जोश पेदा कर दिया। पौड़ी गढ़वाल के मासी-सैणीसेरा गांव के एक गरीब भण्डारी परिवार ने जन्म लेने वाले चंद्र सिंह गढ़वाली अपने क्रांतिकारी सिद्धांतो के पक्के थे, आजादी के बाद नेहरू जी उनको केन्द्रीय सरकार में महत्वपूर्ण पद पर आसीन करना चाहते थे परन्तु कम्युनिस्ट विचारों के कट्टर समर्थक रहे महानायक गढ़वाली जी ने न केवल नेहरू जी का यह अनुरोध ठुकरा दिया अपितु उन्होंने अन्य सुविधायें लेने से से मना कर दिया। यही नहीं अपने अंतिम समय में इलाज करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अनुरोध व सहायता को भी उन्होंने बहुत ही दृढ़ता से ठुकरा दिया। सबसे शर्मनाक बात यह हे कि देश की आजादी व सम्मान के लिए अपना व अपने साथियों का पूरा जीवन दाव पर लगाने वाले ऐसे क्रांतिकारी महानायक को भी उत्तराखण्ड की जनता नहीं पहचान पायी और उनको चुनाव में विजयी करने का दायित्व भी नहीं निभा पायी।

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